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जाती है, परन्तु ये शास्त्र पदार्थ तो बिगड़े बिना हजारों वर्षों से हैं और हजारों वर्षों तक रहेंगे ।
हमें शास्त्रों की कहां चिन्ता है ? अष्ट प्रवचन माता याद हो गई, गोचरी-पानी-संथारा आदि आ गया, फिर अध्ययन करने की आवश्यकता क्या है ? यह हमने मान लिया ।
श्रावक भी केवल पण्डित बनने के लिए पढते हैं । आत्मा के लक्ष्यपूर्वक पढ़नेवाले कितने हैं ?
"द्रव्यक्रियारूचि जीवडा रे, भावधर्म रुचि हीन; उपदेशक पण तेहवा रे, शुं करे लोक नवीन ?"
- पूज्य देवचन्द्रजी सर्वोत्तम भोजन हो, परन्तु भीतर रुचि न हो तो ? श्रेष्ठतम तत्त्व हो परन्तु भीतर प्रेम न हो तो ?
आचार्य पद लाकडिया में (वि. संवत २०२८) दस पयन्ना की वाचना थी । समाधि-पयन्ना में सर्व प्रथम कहा - उन पूज्य आचार्यों को नमस्कार हो, जो अरूपी सिद्धों को हमें यहां बताते हैं, अन्यथा कौन बताये ये पदार्थ ?
अरिहंतो ने मार्ग बताया, परन्तु उस मार्ग को यहां तक पहुंचाने वाले कौन ? पूज्य आचार्य भगवन्त ।
आचार्यों में गुण कितने ? केवल ३६ नहीं; केवल ३६ x ३६ = १२९६ भी नहीं । चंदाविज्झय पयन्ना में उल्लेख है कि उक्त संख्या को आप लाखों, करोड़ों बार गिनो, उतने गुण आचार्य में है।
* अरिहंत, सिद्ध को नमस्कार करने के जितना ही फल आचार्य को नमस्कार करने में है ।
* पूज्य मल्लवादी सूरिजी का नाम ही ऐसा था कि सुनते ही कुवादी भाग जाते । इसीलिए कहां है कि - 'सूरीण दूरीकयकुग्गहाणं ।'
* नौ पद सभी आत्मा को जानने, प्राप्त करने के लिए हैं, यह कदापि न भूलें । अरिहंतो को पूजा नहीं चाहिये, आचार्यों को आपके वन्दन नहीं चाहिये, परन्तु वे आपको अपने समान बनाना चाहते हैं । इसी लिए इतना उपदेश दिया है। (कहे कलापूर्णसूरि - २wooooooooooooooooon १३५)