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ये चार उदाहरण यह समझाने के लिए दिये गये हैं कि आत्मा लोकाग्र भाग में किस प्रकार पहुंचती है ?
* सदा जंगल में रहने वाला भील जिस प्रकार नगर का वर्णन नहीं कर सकता, उस प्रकार ज्ञानी जानते हुए भी सिद्धों के सुख का वर्णन नहीं कर सकते ।
* सिद्धों का विशेष वर्णन जानने के लिए 'सिद्ध प्राभृत' ग्रन्थ पढ़ें; जिसमें १४ मार्गणाओं के द्वारा सिद्धों का वर्णन किया हुआ है । 'मलयगिरि महाराज ने अपनी टीका में 'सिद्ध प्राभृत' ग्रन्थ का उल्लेख किया है । उस पर हमने कुछ लिखा है, परन्तु इस काल में ऐसा पढ़ने वाला वर्ग विरल है, अतः उसे प्रकाशित करने का विचार बन्द रखा है ।
पूज्य देवचन्द्रजी महाराज ने भी सिद्धान्तों का उदाहरण देकर अनेक स्तवनों में सिद्धों का वर्णन किया है । पूज्य देवचन्द्रजी आगमों के अभ्यासी थे और साथ ही साथ परमात्मा के भक्त भी थै ।
* संसार अर्थात् उपाधि ! दिन उगते ही कोई न कोई चिन्ता ! उपाधि, टेन्शन (तनाव), आदि सामने खड़े ही होते हैं (मैं भी साथ हूं।) ऐसी समस्त उपाधियों से रहित केवल सिद्ध
बडे रूप में हमारा नाम जितना प्रसिद्ध होता है, त्यों त्यों उपाधियों बढ़ती है । पद, नाम आदि उपाधि के कारण हैं । उपाधि बढ़े वैसे पद, नाम के पीछे जीवन पूरा कर दें, यह भारी करुणता है।
* संग्रह नय से सर्व जीव, ऋजु सूत्र नय से सिद्ध के उपयोग में रहे हुए जीव, शब्द नय से सम्यग्दृष्टि आदि जीव, समभिरूढ से केवलज्ञानी जीव, एवं भूत से सिद्ध-शिला में गये हुए जीव सिद्ध हैं ।
शब्द नय हमें सिद्ध कहे वैसा जीवन तो हमारा होना ही चाहिये ।
* कोई राजा-महाराजा कहे - 'आप मेरे समान ही हैं, (१३२00000000000000wwmom कहे कलापूर्णसूरि - २]