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________________ करता रहे, तनिक भी माल खरीदे नहीं, उसे दुकानदार कहेगा - तुझे माल कितना खरीदना है, यह तो बता । हम भगवान के गुण-गान करते हैं । भगवान कहते हैं - तुझे कितने गुणों की आवश्यकता है, वह बात कर । भगवान अपने भक्त को सदा के लिए भक्त नहीं रखना चाहते, वे उसे भगवान बनाना चाहते हैं । * सामायिक में बैठे सेठ का ध्यान जूतों में था । अतः नवोढ़ा पुत्र-वधुने कह दिया - 'सेठजी मोचीवाड़े गये है।' जहां हमारा मन होता है, वहां हम होते हैं । यदि उस मन को अरिहंत में जोड़ दें तो अमुक अपेक्षा से हम अरिहंत बन जायें । अपना ध्यान प्रायः सारा दिन शरीर में ही होता है, परन्तु यह शरीर तो किराये का घर है । इसे यहीं छोड़ कर जाना है। हमारा स्वरूप तो उपयोगमय है। जहां जहां उपयोग है, वहां वहां आत्मा है। जहां जहां आत्मा है, वहां वहां उपयोग है। उपयोग एवं आत्मा अभिन्न है, दोनों की अभिन्न व्याप्ति है । जहां धुंआ होता है वहां आग होती है, परन्तु जहां आग हो वहां धुंआ नहीं भी हो; परन्तु यहां ऐसा नहीं है, दोनों एक दूसरे के बिना हो ही नहीं सकते । सिद्धपद * जब संसारी जीव दूसरी गति में जाता है तब कार्मणतैजस शरीर साथ होता है । कैदी को जब दूसरे कारागार में ले जाते हैं तब साथ में मजबूत सन्तरी होता है । उस प्रकार यहां भी कार्मण - तैजस सन्तरी है, चौकीदार है । जीव कहीं छूट कर जाये नहीं । परन्तु जीव जब मोक्ष मे जाता है तब साथ में कार्मण - तैजस आदि कुछ भी नहीं होता । शुद्ध आत्मा मोक्ष में पहुंच जाता है । तब संसार की कैद में से छूटकारा हो जाता है । चौदहवे गुणस्थान में पहुंचे बिना कोई जीव सिद्धगति में नहीं जा सकता । चौदहवा गुणस्थान एक लिफ्ट है ऐसा समझ लो, जिस पर बैठने वाला सीधा ही लोकाग्र भाग में पहुंच जाता है । * पूर्व-प्रयोग, गति-परिणाम, बन्धन-छेद और असंग - कहे कलापूर्णसूरि - २0000ooooooooooooooo० १३१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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