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भगवान के प्रत्येक गुण शक्ति रूप में हमारे भीतर भी विद्यमान ही हैं । भगवान में वह व्यक्ति के रूप में है । शक्ति के रूप में विद्यमान गुण व्यक्ति के रूप में परिवर्तित करना ही साधना का सार है । एक की रकम रोकड़ है, दूसरे की रकम उधार है । सिद्धों का ऐश्वर्य रोकड़ है । हमारा ऐश्वर्य उधारी में फंसा हुआ है । कर्मसत्ता ने इस ऐश्वर्य को दबा दिया है। पांच इन्द्रियों के सुख के खातिर हमने आत्मा का सम्पूर्ण सुख मोह - राजा के वहां गिरवी रख दिया है । एक दिन के आनन्द के लिए अनन्त गुना दुःख स्वीकार कर लिया । 'एक दिन ईद, फिर प्रत्येक दिन रोजा ।' हमारे भीतर ऐश्वर्य विद्यमान है, यह बात हम भूल रहे हैं । इसी लिए हम दीन-हीन बन जाते हैं ।
* पांच प्रतिक्रमण आवश्यक हैं, उस प्रकार सात नय, सप्त भंगी, द्रव्य-क्षेत्र आदि, स्याद्वाद आदि का ज्ञान भी आवश्यक है । इससे हमारी श्रद्धा बढ़ती है, भगवान पर प्रेम बढ़ता है । जैनदर्शन प्राप्त होने के पश्चात् भी स्याद्वाद शैली नहीं समझे तो हम कैसे कहे जायें ?
* स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्व-भाव से सिद्धों की सम्पत्ति प्रकट है, साधु सम्पत्ति पर श्रद्धा रखकर साधना करता है । सिद्ध एवं साधु में इतना अन्तर है ।
इसीलिए साधु के मन रूपी मानसरोवर में हंस के रूप में रमण करने वाले सिद्धों को यहां प्रणाम किया गया है ।
स्वद्रव्य आदि को समझने के लिए तो अलग पाठ ही चाहिये । इस समय हम श्रोता ही हैं । अभी तक विद्यार्थी नहीं बने, विद्यार्थी बनने में पाठ पक्का करना पड़ता है ।
* हमारे भीतर आठों कर्म हैं। वे क्या कार्य करते हैं ? वे बेकार तो बैठते नहीं है। उनका कार्य है हमारे आठों गुणों को रोकना । हमने कर्मों को तो याद रखा, परन्तु गुणों को भूल गये । कर्म गिनते रहे, परन्तु गुण भीतर पड़े हैं, यह तो भूल गये । हमारे गुण भीतर विद्यमान हैं, परन्तु ढ़के हुए हैं । यदि उन्हें प्रकट करने हों तो जिन्हें गुण प्रकट हो चुके हैं, उनका शरण लेना पड़ेगा ।
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5 कहे कलापूर्णसूरि - २