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पाप देखने के लिए हम 'एकाक्ष' भी नहीं है, पूर्णतः अन्धे हैं । दूसरे के सामान्य पाप भी दिखाई देते हैं, अपने बड़े पाप भी दिखाई नहीं देते ।
इस दोष से भगवान ही बचा सकते हैं ।
इसी लिए आराधना के तीन सूत्रों में दुष्कृत गर्हा, अनुमोदना और 'शरणागति' सम्मिलित किये गये हैं । दोष हमारी आत्मा को मलिन करते है । गुण हमारी आत्मा को निर्मल बनाते हैं ।
उदाहरणार्थ जब क्रोध का आवेश होता है तब चित्त मटमैला (मलिन) होता है ।
जब क्षमा होती है तब चित्त प्रसन्न होता है ।
गुण सदा चित्त को प्रसन्न एवं प्रशान्त ही बनाते हैं । दोष सदा चित्त को संक्लिष्ट, भयभीत एवं चंचल ही बनाते हैं । ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होते हुए भी गुणों के लिए प्रयत्न न करें तो हो चुका
सुकृत
* कोई भी सांसारिक सुख, दुःख - मिश्रित ही होता है । इसी लिए ज्ञानी उसे सुख न कहकर दुःख का पर्याय ही कहते हैं । विष-मिश्रित भोजन को भोजन कैसे कहा जाये ? उसे तो विष ही कहना पडेगा ।
बेडी चाहे सोने की हो या लोहे की हो, बन्धन में कोई अन्तर नहीं पड़ता । पुन्य से प्राप्त होने वाला सुख भी दुःख की तरह बन्धन रूप ही है ।
दुःख तो फिर भी अच्छा जो भगवान का स्मरण तो कराता है, परन्तु सुख तो भगवान तो क्या पडोसी को भी भुला देता है ।
सम्पूर्ण आत्म-सुख सिद्ध भगवंतो को प्राप्त हो चुका है । उन्हें सच्चे सुख के सम्राट कहा जा सकता है । * गुण पर्याय में क्या अन्तर है ?
'सहभाविनो गुणाः ।' 'क्रमभाविनः पर्यायाः ।'
जो सदा साथ हो वह गुण है, और क्रम से आये वह पर्याय
है ।
कहे कलापूर्णसूरि २
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