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भले ही दर्शन नहीं प्राप्त हुआ है, केवल उसकी पिपासा जगे तो भी पर्याप्त है । प्यासा मनुष्य मृत्यु - शैया पर पडा हो, पानी के अभाव में तड़पता हो, तब वह पानी के लिए कितना पुकारता है ? उस प्रकार यदि हम प्रभु को पुकारें तो प्रभु मिलेंगे ही; परन्तु इतनी तड़पन कहां है ? निश्चित करो कि प्रभु-दर्शन के बिना मरना नहीं ही है । ऐसा प्रणिधान होगा तो भी कार्य हो जायेगा ।
प्रणिधान अर्थात् दृढ संकल्प ! जहां दृढ संकल्प होता है वहां प्रवृत्ति होती ही है । विघ्न- जय भी होकर ही रहती है । मुख्य प्रश्न है प्रणिधान का, दृढ संकल्प का ! हमारा संकल्प ही शिथिल हो तो सिद्धि प्राप्त होगी ही नहीं ।
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" मैं ज्ञानी बना, मैंने अपने आप अध्ययन किया । मैं ने ही अपने श्रम से यह सब खड़ा किया ।" भक्त की भाषा ऐसी नहीं होती । वह तो प्रत्येक प्रसंग पर भगवान को याद करता ही है । जैनदर्शन चाहे ईश्वर कर्तृत्व नहीं मानता, फिर भी भक्ति मानता है, कृपा पदार्थ को मानता है । यदि ये पदार्थ अच्छी तरह समझने हों तो 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ अवश्य पढ़ें, ताकि भक्ति क्या चीज है, यह आपको समझ में आयेगा ।
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* सांप को यदि घर में नहीं रखा जाता तो आत्मा में दोष किस तरह रखे जा सकें ? सांप तो एक जन्म के ही प्राण लेता है । पाप तो भव-भव के प्राण ले लेते है । ऐसे पाप चाहे अनादिकालीन हों, उन्हें निकालने पर ही मुक्ति है । उसके लिए 'शरणागत वत्सल' नहीं बना जाता ।
अठारह पापों के लिए 'संथारा पोरसी' में क्या बोलते हैं ?
" मुक्खमग्गसंसग्ग - विग्घभूआई" मोक्ष - मार्ग में विघ्न डालनेवाले ये अठारह पाप ही हैं । इन पापों को हमने मित्र मान लिये ।
भगवान ने उन्हें पहचान लिया और पापों के प्रति क्रूर बन कर टूट पड़े । भगवान 'पुरुषसिंह' हैं । इस विशेषण में भगवान का सिंहत्व इसी प्रकार से घटित किया गया है ।
दूसरे के पाप देखने के लिए हम सहस्रलोचन हैं, स्वयं के
ॐ कहे कलापूर्णसूरि - २
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