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पालीताणा चातुर्मास, वि.सं. २०३६
१३-४-२०००, गुरुवार चैत्र शुक्ला - १० : पालीताणा
जिनके स्मरण मात्र से भी हमारे सुख में वृद्धि होती रहे वे वर्धमान स्वामी...! जितना प्रभाव उनका है, उतना ही प्रभाव उनके नाम का भी है । नाम-नामी का अभेद है । इस समय हमारे पास साक्षात् भगवान नहीं है; भगवान का नाम, मूर्त्ति एवं आगम आदि ही हैं । हमारा हृदय भक्त बने तो इन सबके माध्यम से भी प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है । मन्त्रमूर्त्तिं समादाय, देवदेवः स्वयं जिन: ।
सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः, सोऽयं साक्षाद् व्यवस्थितः ॥
झूले में रोता हुआ बालक शान्त हो जाता है जब माता डोरी से झूला हिलाती है।
नाम एवं प्रतिमा की डोरी से हम भी भगवान के साथ सम्बन्ध जोड सकते हैं, ऐसी श्रद्धा आज भी चतुर्विध संघ में है इसी लिए हजारों मनुष्य यहां आते हैं ।
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श्रद्धा विण कुण इहां आवे रे ... ?'
* प्रभु का दर्शन अर्थात् विश्व-दर्शन, आत्म-दर्शन, सम्यग्दर्शन...! यह दर्शन भी मिल जाये तो भी बेड़ा पार है ।
(कहे कलापूर्णसूरि २
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