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आप ही हैं । आपके अतिरिक्त किसी का आधार नहीं है; तो ही भगवान की ओर से हमें प्रतिभाव मिलता है। हमने अनन्य भाव से भगवान की शरणागति कदापि स्वीकार नहीं की ।।
* तीर्थंकरो का सम्यक्त्व 'वरबोधि' (चाहे वह क्षायोपशमिक हो) कहलाता है, चारित्र 'वरचारित्र' कहलाता है ।
* "कहां मेरी मति मारी गई कि मैंने दीक्षा ग्रहण की ? इसकी अपेक्षा घर में रहा होता तो !" ऐसे विचार दीक्षितों में भी आ सकते हैं । यह मोह का तूफान है । ऐसे तूफान के समय भगवान का स्मरण करना । वे कर्णधार बन कर आयेंगे । आपकी जीवन-नैया को डूबने नहीं देंगे ।
"तप, जप, मोह महा तोफाने, नाव न चाले माने रे । पण मुझ नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छ साथे रे ।"
* 'भगवान उपस्थित नहीं हैं' ऐसी हमारी मान्यता जडमूल से नष्ट करनी पडेगी । भगवान चाहे यहां नहीं हैं, किन्तु भगवान की शक्ति तो जगत् में कार्य कर ही रही है । सूर्य चाहे आकाश में है, प्रकाश तो यहीं हैं न ? सिद्ध चाहे ऊपर है, परन्तु उनकी कृपा-वृष्टि तो यहां हो रही है न ? केवल वह अनुभव में आनी चाहिये ।
* भगवान जगत् के सार्थवाह हैं । सार्थ से आप मुक्त न हो तो मोक्ष तक का उत्तरदायित्व भगवान का है ।
* यदि इस समय आप ध्यानपूर्वक सुन रहे हों तो निश्चित रूप से आपका मन अरिहंतमय बन गया होगा ।
आपका उपयोग अरिहंतमय बना, यही अरिहंत का ध्यान है। एक नय तो यहां तक कहता है - कि अरिहंत के उपयोग में रहने वाली आत्मा ही स्वयं अरिहंत है ।
___ 'अरिहंत-पद ध्यातो थको' - यहां अभेद ध्यान की बात है । हमारे बीच की अहंकार की दीवार टूट जाये तो अरिहंत और हम एक ही हैं ।
हम मानते हैं - मैं अर्थात् देह । भगवान मानते हैं - जगत् के समस्त जीवों में मैं हूं। भगवान की विराट चेतना है, हमारी चेतना वामन है । यदि हमारी वामन चेतना विराट में मिल जाये कहे कलापूर्णसूरि - २00000000000000000000 ११९)