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जो भी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु बने हैं वे उनके ध्यान से ही बने हैं, यह निश्चित समझें ।
__ अरिहंत स्वयं भी बीस या बीस में से किसी एकाद पद की समापत्तिपूर्वक साधना करते हैं । आज तक कोई ऐसे अरिहंत बने नहीं है, जिन्होंने ऐसा ध्यान नहीं किया हो और अरिहंत बन गये हों ।
मात्रा और परम मात्रा-ध्यान अरिहंत बनानेवाले हैं । परम पदध्यान पंच परमेष्ठी बनाने वाला है ।
जिस ध्यान से अरिहंत पद प्राप्त किया जा सकता है, वह ध्यान भगवान ने छिपा नहीं रखा । शास्त्रों में सब उल्लेख है । ___इस दृष्टि से 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ अद्वितीय, अतुल है, पठन योग्य है ।
__ 'ध्यान-विचार' पर लिखा, वैसे तो लिखा नहीं जाता, परन्तु आज लगता है कि भगवान ने मुझसे लिखवाया ।
राणकपुर के शिल्प में 'ध्यान-विचार' के प्रायः सभी ध्यान उत्कीर्ण हैं ।
चौबीस माताओं के साथ रहे बालक तीर्थंकरो की परस्पर (माता एवं पुत्र) दृष्टि मिली हुई है । ऐसे शिल्प राणकपुर, शंखेश्वर आदि में हैं । 'ध्यान-विचार' में इस ध्यान का भी वर्णन है ।
ऐसे शिल्पों से कई बार तीर्थों की रक्षा भी हुई है ।
चौदह स्वप्नों के शिल्प के कारण पूज्य नेमिसूरिजी ने कापरडाजी तीर्थ बचाया था । अजैन लोगों ने उस पर अपना दावा किया था । चौदह स्वप्न तो जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं होते । इस तर्क से अजैन लोगों के हाथ नीचे गिरे ।
* पुष्करावर्त मेघ एक बार बरसता है तो फिर वर्षों तक भूमि में से फसल निकलती रहती है; उस प्रकार तीर्थंकरो की वाणी हजारों वर्षों तक प्रभावशाली रहती है । इस समय भी यह वाणी अपना प्रभाव फैला रही है। अभी भी साढे अठारह हजार वर्षों तक इस वाणी का प्रभाव रहेगा ।
* भगवान के समक्ष हम अनन्य भाव से जायें और निवेदन करें कि 'भगवन् ! आप ही सर्वस्व हैं । माता, पिता, बन्धु सब (११८ 05mmmmmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)