SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुझे तो बचपन से ही, आठ वर्ष का था तब से ही नवपद की ढाल आदि, सुनने को मिली, सुनते-सुनते ही कण्ठस्थ हो गई । यह मेरा पुन्योदय था । अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पंच परमेष्ठी के नहीं, अपने ही गुण हैं । हमारा ही यह भावी पर्याय है । * पच्चीस वर्ष पूर्व मैं पूज्य पंन्यासजी म. के पास आपकी तरह 'नोट' लेकर जाता, परन्तु लिखा नहीं जाता था । अतः लिखना छोड़कर ध्यान से सुनने लगा । सुनकर उन पदार्थों को भावित बनाने का प्रयत्न करता ।। वाणी वही होती है, परन्तु अनुभव से निकले शब्द भिन्न प्रभाव डालते हैं । पूज्य पंन्यासजी महाराज की वाणी साधना-पूत थी । पं. वीरविजयजी के शब्द भी हृदय को झंकृत करने योग्य हैं क्योंकि साधना के द्वारा निकले हुए हैं । 'दोय शिखानो दीवडो रे...' केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप दो शिखाओं का दीपक सम्पूर्ण ब्रह्मांड में उजाला फैलाता है । यह कल्पना कितनी सुन्दर है ? केवली जब समुदघात करते हैं तब चौथे समय में उनकी आत्मा सर्व लोकव्यापी बनती है । हम भी उस समय लोकाकाश में ही थे न ? उनके स्पर्श से हमारी आत्मा पवित्र बनती रहती है । ऐसी कल्पना कितनी सुन्दर प्रतीत होती है ? ऐसे सर्वव्यापी प्रभु को भी भक्त अपने हृदय में समाविष्ट कर सकता है - 'लघु पण हुं तुम मन नवि मार्बु रे, जगगुरु तुमने दिलमां लावं रे; कुण ने दीजे शाबाशी रे, कहो श्री सुविधि जिणंद विमासी रे ।' - पू. यशोविजयजी भगवान की वाणी में जिसे विश्वास है, उसे तो आनन्द आता ही है, परन्तु जिसे विश्वास न हो उसे भी आनन्द आता है, इतनी मधुर होती है । श्रोता भूख, थकान, प्यास सब भूल जाते है । * जगत् में जितनी वस्तु आनन्ददायिनी हैं, उन सब में नवपद सबसे श्रेष्ठ है । (कहे कलापूर्णसूरि - २ womansoomanas as assoon asso ११७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy