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चिन्तन मग्नता
११-४-२०००, मंगलवार चैत्र शुक्ला-८ : पालीताणा
* जिसका चिन्तन, ध्यान एवं भावन करते हैं, अपना चित्त उस आकार को धारण करता है ।
'चिन्तास्थिरतापूर्वकः शुभाऽध्यवसायो ध्यानम् ।'
ध्यान-विचार' का यह सूत्र है । इसमें ध्यान की परिभाषा व्यक्त की गई है।
ध्यान के पूर्व चिन्तन चाहिये । जिसका चिन्तन करें, उसका ही ध्यान हो सकता है ।
जिन भगवान के आश्रय में हम आये, क्या वे भगवान हमें दुर्गति में भेजेंगे ? असम्भव बात है, लेकिन हम भगवान एवं भगवान के अनुष्ठानों में कभी ध्यान लगाते ही नहीं हैं। ध्यान लगाया नहीं हो तो सच्चे अर्थ में आश्रय लिया नहीं कहा जायेगा ।
अरिहंतो की अपेक्षा श्रेष्ठ ध्यान एक भी नहीं हैं ।
* पंच परमेष्ठी आदि के काउस्सग्ग, खमासमण आदि करने से हमारा चित्त उनमें तन्मय बन जाता है । इसीलिए ओली में ऐसी विधि रखी गई है ।
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