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________________ ATISHTRA S पू.पं.श्री भद्रंकरवि. के साथ, वि.सं. २०३२, लुणावा लाकडिया - निवासी वेलजी मलूकचंद कुबडिया परिवार द्वारा आयोजित चैत्री ओली । ४०० आराधक । १०-४-२०००, सोमवार चैत्र शुक्ला-६ : खीमईबेन धर्मशाला, पालीताणा * तीर्थंकर भगवंतों ने पूर्व जन्म में आत्मा को शासन से ऐसा भावित किया हुआ होता है, जिसके कारण तीर्थंकर के जन्म में ऐसा प्रभाव प्रतीत होता है । अन्य जीव भी भावित होते हैं परन्तु तीर्थंकरो की कक्षा तक नहीं पहुंच पाते । रत्न तो अन्य भी होते हैं, परन्तु चिन्तामणि रत्न की तुलना नहीं कर सकते । खान में पड़े चिन्तामणि को सामान्य लोग नहीं पहचान पाते, परन्तु जौहरी पहचान सकता है। उस समय भी उसमें चिन्तामणि के गुण विद्यमान ही होते हैं, उसी प्रकार से भगवान में भी सदा के लिए परार्थतापरार्थ व्यसनिता विद्यमान ही होती है । 'आकालमेते परार्थव्यसनिनः ।' निगोद में से बाहर निकलते ही तीर्थंकरो की आत्मा पत्थर बने तो चिन्तामणि बनती है, वनस्पति बने तो पुण्डरीक कमल बनती है, कल्पवृक्ष बनती है, जहां से अनायास ही परोपकार होता ही रहता है। कहे कलापूर्णसूरि - २00mmonsoooooooooooom १११)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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