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शुद्ध श्रद्धा एवं आत्मा के आलम्बन के बिना हमारी क्रिया किस प्रकार मोक्षदायी बनेगी ?
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आप सर्व प्रथम अपनी ही सोई हुई आत्मा को जगायें । वह जग जाये, बाद में ही दूसरों को जगाने का प्रयत्न करें । हम तो इस समय सोए हुए हैं और दूसरों को जगाने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
* संसार का उच्छेदन शुद्ध धर्म से ही होता है, ऐसा पंचसूत्र में उल्लेख है धर्म तो शुद्ध ही होता है न ? यह हम मान लेते हैं । अपने आचरण के द्वारा धर्म को शुद्ध बनाना है । मिथ्यात्व मिटाकर ही धर्म शुद्ध बन सकता है ।
'भीतर विद्यमान सिद्धत्व ही मुझे प्रकट करना है, मुझे दूसरा कुछ भी नहीं चाहिये' ऐसी भावना हो तो ही धर्म शुद्ध बन सकता है । धर्म के द्वारा कीर्त्ति आदि भौतिक पदार्थ भी प्राप्त करने की इच्छा हो तो समझें कि धर्म अभी तक शुद्ध नहीं बना ।
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भगवान तुल्य उत्तम निमित्त पाकर भी यदि हमारा आत्मा विशुद्ध न बने तो हो चुका ! पू. देवचन्द्रजी महाराज की यह वेदना अपनी वेदना बन जाये तो कितना उत्तम हो ?
यह सब मैं दूसरों को देखने के लिए नहीं सिखाता, स्वयं को देखने के लिए ही कहता हूं । पुनः पुनः यह बात मैं बलपूर्वक कहना चाहता हूं ।
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......तो हो
भोजन के साथ पानी मिले तो भोजन पचेगा । तन के साथ मन मिले तो साधना हो ।
प्रकृति के साथ पुरुष मिले तो संसार मण्डित हो ।
कृष्ण के साथ यदि अर्जुन मिले तो महाभारत जीत सकें । ज्ञान के साथ यदि भक्ति (श्रद्धा) मिले तो मोक्ष प्राप्त हो ।
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कहे कलापूर्णसूरि