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मुझे पहले कर्म-साहित्य शुष्क प्रतीत होता था, परन्तु 'ध्यानविचार' पढ़ने के बाद कर्म-साहित्य देखने की दृष्टि ही बदल गई। कर्म-साहित्य में भी ध्यान के बीज पड़े हुए हैं - यह ध्यानविचार के द्वारा समझ में आ गया । 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ दस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था । कितने व्यक्तियों ने पढा ?
ध्यान-शक्ति को जाने बिना, उसका आचरण किये बिना हम किस प्रकार साधक बनना चाहते हैं, यही समझ में नहीं आता ।
आज दादा की यात्रा करके लौटा हूं। जो भाव उत्पन्न हुए हैं, उभरे हैं, वह बता रहा हूं। बताने में तनिक भी कृपणता नहीं कर रहा हूं।
श्रावकगण 'ध्यान-विचार' पर वाचना रखने के लिए विनती करते हैं । आपकी कभी इच्छा हुई ?
श्रावकगण आज जीवदया के लिए करोड़ो रुपये एकत्रित करना सोचते हैं । किस लिए ? अकाल में जीव मर रहे हैं । यह कैसे देखा जा सकता है ? श्रावकों का हृदय इतना कोमल हो तो अपना कैसा होना चाहिये ? क्या दुःखी जीवों का दुःख देखकर हृदय करुणामय बनता है, पिघलता है ?
* कैसा है हमारा जीवन ? दिन भर बातें होती रहती हैं । बात-बात में क्रोध, अविनय, उद्धताई का पार नहीं । गुणों की तो एक बूंद नहीं, फिर भी अहं का पार नहीं ।
"राग-द्वेषे भर्यो मोह-वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंय मा'तो,
तार हो तार प्रभु... !" पू. देवचन्द्रजी महाराज का यह स्तवन भावपूर्वक भगवान के समक्ष गायें । इसमें स्व-दुष्कृत गर्हा की दृष्टि प्राप्त होगी ।
__ भगवान के समक्ष, बालक बनकर सब बता दें । हम तो यह मानते है कि यह सब श्रावकों के लिए हैं। हमें कहां क्रोध आदि या विषय आदि सताते हैं ? भारी भूल है यह अपनी ।
जो कुछ भी क्रिया-काण्ड़ करते हैं वह लोक-उपचार से करते हैं या आत्मा से करते हैं ? कभी आत्म-निरीक्षण कर के देखें । 'आदर्यो आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो;'
कहे
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