SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आज यात्रा करने के बाद साढ़े बारह बजने पर भी भूख का कोई संवेदन नहीं । प्रभु का प्रभाव ऐसा प्रत्यक्ष प्रतीत होने पर भी मैं यदि जाहिर न करूं तो दोषी माना जाऊं । * अन्तर में बैठा सिद्ध स्वरूपी आत्मा जब तक जागृत न हो तब तक सिद्ध गिरिराज की स्पर्शना का अनुभव नहीं होगा । यदि ऐसा हो सकता होता तो डोली वालों का सर्व प्रथम कार्य हो जाता । संग्रहनय से हम सिद्ध हैं, यह बात सत्य है, परन्तु व्यवहार में यह नहीं चलता । घास में घी है यह बात सत्य है, परन्तु घास को काटो या जलाओ तो क्या घी प्राप्त होगा ? इसी कारण से इस कक्षा में आप स्वयं को सिद्ध मान लो और 'सोऽहं' की साधना का पकड़ कर भगवान को छोड़ दो तो क्या चलेगा ? साधना प्रारम्भ करने के लिए सर्व प्रथम भगवान की आवश्यकता होगी । 'सोऽहं' की नहीं 'दासोऽहं' की साधना की आवश्यकता है । * संग्रहनय से हम सिद्ध हैं, यह जानकर बैठे नहीं रहना है, परन्तु एवंभूत नय से सिद्ध बनने की भावना रखनी है | गाय घास खाती है, दूध देती है, फिर घी बनता है; उस प्रकार यहां भी अत्यन्त साधना करने के बाद सिद्धत्व प्रकट होगा । संग्रहनय से सिद्धत्व भीतर विद्यमान है, इतना ज्ञात हो जिससे हताशा मिट जाय, यही लेना है, आलसी नहीं बनना है । हमें यह मान कर बैठे नहीं रहना है कि मैं सिद्ध ही हूं, फिर साधना की क्या आवश्यकता है ? संग्रहनय की बात पात्र में आशा - उत्साह भर देती है, जबकि अपात्र को आलस से भर देती है । है घास में दूध समुचित शक्ति से है, (शक्ति दो प्रकार की समुचित शक्ति एवं ओघ शक्ति) परन्तु व्यवहार में दूध के स्थान पर आप किसी को घास दें तो नहीं चलेगा । हमारा सिद्धत्व व्यवहार में नहीं चलेगा । यह जानकर वह * पथिक कितने किलोमीटर चला सन्तोष मानता है कि इतना चला, अब इतना ही बाकी रहा है। कहे कलापूर्णसूरि २ Wwwwwww 00000 १०७ -
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy