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________________ आप यह कदापि न माने कि एक बार प्राप्त गुण चले नहीं जाते । जब तक क्षायिक गुण न बनें तब तक तनिक भी गाफिल रहना नहीं चाहिये । * जो हमें अज्ञान का ज्ञान कराये वही सच्चा ज्ञान है । चौदह पूर्वी भी कहते हैं आज पता लगा कि इतना विशाल ज्ञान है । इससे पूर्व में अज्ञानी था । अभी भी ज्ञान कितना अधिक बाकी है ? जब चौदह पूर्वी भी ऐसा सोचते हैं तो हम कौन हैं ? कोई अच्छी स्तुति या अच्छी सज्झाय बोलने पर भी हम कूदने लगते हैं । हम तो खड्डे के मैंढक हैं । हमारे भीतर अहंकार का एकछत्र राज्य है । उसे जब तक निरखना नहीं सीखें तब तक आराधक बनना कठिन है । * हम अब पालीताणा जा रहे हैं । दोषित आहार का ध्यान रखना । पूज्य कनकसूरिजी के समय में केले, पपीते या आम के अतिरिक्त कोई फल हमने देखे नहीं । फल अधिकतर दोषित होते हैं । 44 * छोटी साध्वीजी आगे बैठे और बड़ी साध्वीजी पीछे बैठें यह कैसा है ? क्या वाचना सुनकर आपने यही विनय सीखा ? पू. मुक्तिचन्द्रसूरिजी ने पू. कनकसूरिजी को पूछा, आप अपने साधुओं को भाता खाते में से भिक्षा ग्रहण करने का इनकार क्यों करते हैं ? भाता खाते की सामग्री तो निर्दोष है । 44 'भाता खाते की सामग्री निर्दोष है, यह बात सत्य है, परन्तु यदि वे लड्डू पसन्द पड़ जाये तो फिर पालीताणा छूटेगा नहीं ।" पूज्य कनकसूरिजी ने सहज ही उत्तर दिया । फल तो सचमुच त्याग करने योग्य हैं । ( शपथ दी गई 1) * * दीक्षा अंगीकार करने से पूर्व मुझे एकासणा करने की आदत नहीं थी, परन्तु यहां आने के पश्चात् समस्त महात्माओं को एकासणा करते देखे । मैंने अभिग्रह ही ले लिया कि मैं आजीवन एकास करुंगा । जब तक स्वास्थ्य ठीक था, तब तक एकास ही किये, चाहे उपवास का पारणा हो या अट्ठाई का । कहे कलापूर्णसूरि २ क - 0000 १०५
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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