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* कलिकालसर्वज्ञ पूज्य हेमचन्द्रसूरिजी का देहान्त अचानक हुआ था । उनके लिए भिक्षार्थ (गोचरी के लिए) गये साधु के पात्र में मार्ग में मिले एक बावाजी ने लड्ड में नाखून से विष डाल दिया था। बावाजी का उद्देश्य आचार्यश्री के मस्तक में विद्यमान मणि को प्राप्त करने का था ।
इसीलिए मिथ्यात्वी आदि के साथ वार्तालाप आदि करना वर्जित गिना गया है । जिस प्रकार सम्यक्त्व में अतिचार लगता है, उस प्रकार कभी ऐसी दुर्घटना भी होना सम्भव है ।
* विनय ज्ञान को लाए बिना नहीं रहता, ज्ञान चारित्र को लाए बिना नही रहता । आगे बढकर विनय ही ज्ञान और केवल ज्ञान ही चारित्र बन जाता है, यह कहूं तो भी मिथ्या नहीं है।
पूज्य देवचन्द्रजी ने कहा है - 'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह...।'
* भूख के बिना भोजन प्राप्त नहीं होता, पचता नहीं है, उस प्रकार आत्मानन्द की अनुभूति की भी रुचि होनी चाहिये । रुचि का नाम ही सम्यग् दर्शन है । आत्मानन्द की अनुभूति ही चारित्र है।
इस समय प्राप्त ओघो (रजोहरण) मुहपत्ति आदि उपकरण केवल बाह्य साधन हैं । थाली, कटोरी, रोटी आदि सब हो, परन्तु पेट में भूख न हो तो वे सब क्या काम के ? धर्म-सामग्री सामने पड़ी होने पर भी अन्तर में उनकी रुचि न हो तो सब किस काम की ?
* धागे विहीन सुई की तरह सूत्र रहित ज्ञान खो जाने में तनिक भी विलम्ब नहीं लगता । ज्ञान चले जाने के बाद धीरेधीरे सब कुछ चला जाता है, क्योंकि ज्ञान सबका मूल आधार
भुवनभानु केवली की आत्मा एक युग में चौदह पूर्वी थी, परन्तु ज्ञान भूलकर वह आत्मा कितने ही काल तक संसार में भटकी । ज्ञान चले जाने पर मिथ्यात्व आने में कितनी देर लगेगी ?
गुरु को उत्तर देने पर क्या मिथ्यात्व आ गया ? हां, देवगुरु का विरोध करने का अर्थ है स्वयं को उनसे अधिक मानना । इस प्रकार मानना मिथ्यात्व ही सिखाता है न ?
(१०४00mmmmmmmmmannaamana कहे कलापूर्णसूरि - २)