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________________ RAM DIS TRIANDRONARY तीस्मात्तूर - बेंगलोर संघ में, वि.सं. २०५१ ६-४-२०००, गुरुवार चैत्र शुक्ला -२ : राजेन्द्रधाम * हम यह मानते हैं कि हमारा कार्य हो गया तो बात खतम, परन्तु भगवान जगत् के समस्त जीव सुखी नहीं हो तब तक कार्य को अपूर्ण मानते हैं, क्योंकि वे सर्वात्मव्यापी है। समस्त जीवों के दुःख का संवेदन उन्होंने स्व में किया है । हम भी इन दुःखो का संवेदन करें, हम भी सर्व में स्व को देखने की दृष्टि प्राप्त करें । इसीलिए छ: जीवनिकाय आदि का परिज्ञान दशवैकालिक जीवविचार आदि के द्वारा दिया जाता है। दशवैकालिक में एक अच्छा श्लोक है - 'सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूआई पासओ । पिहिआसवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधइ ॥' समस्त जीवों को आत्मवत् गिनने वाले, जीवों को सम्यग् प्रकार से देखने वाले, आश्रव रोकने वाले और दमन करने वाले साधक के पाप-कर्म नहीं बंधते । * नवकार में चौदह पूर्व का सार आ गया, अतः अन्य किसी सूत्र की आवश्यकता नहीं है, ऐसी बात नहीं है । जीवन (१००0000mammommonsoonam कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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