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ध्यान-विचार पढने पर समझ में आया कि कर्मग्रन्थ में आनेवाले भांगे भी ध्यान में उपयोगी हैं ।
लोग कहते हैं कि जैन-दर्शन में ध्यान नहीं है, परन्तु मैं कहता हूं कि यहां जो ध्यान है वह अन्यत्र कहीं नहीं है । एक बात समझ लो कि ध्यान से तात्पर्य मात्र एकाग्रता नहीं है। निर्मलता पूर्वक की एकाग्रता ध्यान है ।
प्रश्न - ध्यान की विधि सिखायें ।
उत्तर - ध्यान के लिए समय किसको है ? समाचार-पत्र पढने वालों, बाते करने वालों, भक्तों के समूह में रहने वालों को क्या समय है ?
ध्यान के लिए पूर्व भूमिका तैयार करे, अनन्य भाव से भगवान की भक्ति करें, शरणागति स्वीकार करें; फिर ध्यान अपने आप आयेगा । ध्यान करने से होता नहीं है, प्रभु की कृपा से स्वयं उत्पन्न होता है । हम केवल पूर्व-भूमिका तैयार कर सकते हैं । नींद प्रयत्न करके नहीं लाई जा सकती, हमें मात्र नींद के लिए पूर्व-भूमिका तैयार करनी है ।
आखिर ध्यान किसका होगा ? जिस प्रकार की जीवनचर्या होगी उसका ध्यान होगा ।
पद्मासन लगाकर बिन्दु कला आदि का ध्यान मैं सिखाता नहीं हूं । ये तो केवल धारणा के प्रकार हैं ।
सचमुच जब जीवन निर्मल बन जाये, प्रभु-भक्ति से रंग जाये, तब प्रतिक्रमण के सूत्र आदि भी ध्यान रूप बन जाते हैं । इसी कारण से मुझे प्रतिक्रमण के सूत्रों आदि में इतना विलम्ब होता है। इतना आनन्द आता है कि मन वही रमण करने लगता है।
* रोग का उपचार तब का तब नहीं होता, तनिक समय होना चाहिये । यही बात क्रोध आदि के आवेश की है। इसी लिए जब दो व्यक्ति झगड रहे हों, तब मैं तुरन्त बीच में नहीं पडता । आपको ऐसा विचार आता होगा कि महाराज क्यों नहीं बोलते ? परन्तु मैं आवेश के शमन होने की प्रतीक्षा करता हूं। आवेश के समय कुछ भी कहा जाये वह व्यर्थ है । प्रारम्भ में अनेक कर्म उदय में आते हैं; कर्म का निषेक इस प्रकार का होता है । (९८0mmmmmmmmmmmmmmmma कहे कलापूर्णसूरि - २)