________________
काकटूर - नेल्लोर( २४ तीर्थंकर धाम) अंजनशलाका प्रतिष्ठा,
वि.सं. २०५२
५-४-२०००, बुधवार चैत्र शुक्ला-१ : नवागाम, पालडी
गाथा - ७९ 'नाणेण होइ करणं करणेण नाणं फासियं होइ ।
दुण्हंपि समाओगे, होइ विसोही चरित्तस्स ॥' * धर्म का प्रवेश कैसे ज्ञात होता है ? दुःखितेषु दयाऽत्यन्तमद्वेषो गुणवत्सु च ।
औचित्यं सर्वत्रैवाविशेषतः ।।
दुःखी के प्रति दया, गुणी के प्रति द्वेष-रहितता, सर्वत्र औचित्य आदि के द्वारा धर्म का प्रवेश ज्ञात होता है ।
जब तक चरमावर्त्त में प्रवेश नहीं होता, तब तक धर्म शब्द भी प्रिय नहीं लगता । चरमावर्त्त भी अत्यन्त लम्बा है । इसमें भी मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (७० कोड़ाकोड़ि) जब केवल एक ही कोड़ाकोड़ि सागरोपम में आ जाती है, तब धर्म प्रिय लगता है । अनेक जीव-चरमावर्त्त में भी कई बार उत्कृष्ट स्थिति का बंध करते हैं । वे धर्म के लिए अयोग्य हैं । कितनेक जीव दो ही वक्त बांधते हैं, वे द्विबंधक कहलाते हैं । कितनेक जीव एकही बार बांधते हैं, उन्हें सकृबंधक कहते हैं । कितनेक जीव एक (९६ 60 mms soon mama कहे कलापूर्णसूरि - २)