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________________ । दक्षिण भारत में विहार ४-४-२०००, मंगलवार चैत्र कृष्णा -३० : वलभीपुर * आज परम रहस्यमय श्लोक आया है। वैशाख शुक्ला द्वितीया को सतहत्तरवां वर्ष बैठेगा और यह श्लोक भी सतहत्तरवां है। जं नाणं तं करणं, जं करणं पवयणस्स सो सारो । जो पवयणस्स सारो, सो परमत्थति नायव्वो ॥ ७७ ॥ जो ज्ञान है वह चारित्र है । जो चारित्र है वह प्रवचन का सार है, परमार्थ है। * पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज को 'नवकार' पर अटूट श्रद्धा थी । तीन वर्ष तक उनके साथ रहने का अवसर मिला । किसी भी श्लोक का परम रहस्य उन्हें प्राप्त हो जाता । इतने सारे आगम हम कब पढेंगे ? इस की अपेक्षा एक नवकार को भावित बनायें तो कार्य हो जाये । पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी ने यह सोच कर एक नवकार को ही पकड़ रखा था । आपको यदि कोई स्तवन या श्लोक प्रिय लगे तो उसे पकड़ रखो, उस पर चिन्तन करते रहो तो नया नया ही मिलता रहेगा। पीपर को यदि ६४ प्रहर तक (आठ दिन तक) घोटी जाये तो उसकी गर्मी बढ़ जाती है । ज्यों ज्यों घोटते जाओगे, त्यों त्यों (९२ 60oooooooooooooommon कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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