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पीपर की शक्ति बढ़ती जायेगी । उसी प्रकार से श्लोक की शक्ति भी बढ़ती जायेगी, यदि उस पर चिन्तन किया जाता रहे तो शक्ति बढ़ती जायेगी ।
यदि हृदय से प्रिय लगता हो तो ७७वां यह श्लोक ग्रहण करने योग्य है ।
* मैं ने सुरेन्द्रनगर में विशेष आवश्यक भाष्य प्रारम्भ किया और वढ़वाण में पं. अमूलखभाई के पास पूरा किया ।
'विशेषावश्यक' भाष्य एवं 'आवश्यक निर्युक्ति' आगमों का सार है । 'नंदीसूत्र' एवं 'अनुयोगद्वार' आगमों की चाबी है, परन्तु कौन सी चाबी कहां लगानी, यह गुरुदेव के हाथ में है ।
* जिस समुदाय का उपरी विनीत नही हो, वह अपने शिष्यों के विनीत बनने की आशा नहीं रख सकते ।
वर्तमान आचार्य, कल के विनीत शिष्य थे ।
* पदवी मांगी नहीं मिलती, गुरु कृपा से मिलती है । आप सच्चे शिष्य बनों तो स्वयं सच्चे गुरु बनोगे । कितनेक ऐसे भी होते हैं जो अपने आप पदवी ले लेते हैं । यह अविनय की पराकाष्ठा है ।
* जिस ज्ञान का फल न मिले वह ज्ञान बांझ कहलाता है । इसीलिए यहां लिखा है " जो ज्ञान है वही चारित्र है | चारित्र ही प्रवचन का सार है, प्रवचन का परमार्थ है, परम सार है ।
* अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु (असिआउसा) नमस्करणीय हैं । उन्हें आपने नमस्कार किया जिससे आपमें विनय आया । यह विनय ही आगे जाकर ज्ञान एवं चारित्र में रूपान्तरित हो जाता है ।
* भगवान के दरबार में मेरे तेरे का कोई भेद नहीं है । सबको भगवान पूर्ण रूप से देखते है । जो भाव से उनकी आज्ञा माने, उसका भगवान कल्याण करेंगे ही। जमालि आश्रित थे, फिर भी उनकी उपेक्षा की । दृढप्रहारी आदि हिंसक थे, फिर भी उनका उद्धार किया ।
भगवान ने सुनक्षत्र, सर्वानुभूति को गोशाले की तेजोलेश्या से नहीं बचाये, गोशाले को वेश्यायन तापस से बचाया । क्यों बचाया ?
कहे कलापूर्णसूरि २
NOTळ ९३
कळ