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व्यापारी अपनी कमाई व्यापार में लगाकर अधिकाधिक धनाढ्य बनने का प्रयत्न करता है, उस प्रकार हमें भी ज्ञान की धनराशि के द्वारा अधिकाधिक गुणवान बनना है ।
* ज्ञानी मानते हैं कि पुन्योदय से प्राप्त होने वाला सुख भी आत्म-सुख का अवरोधक है । इसीलिए अनुकूलता में ज्ञानी प्रसन्न नहीं होता ।
इसीलिए 'हां शाता में हूं' नहीं बोला जाता । अनेक बार ऐसा बोलने पर उसी दिन स्वास्थ्य बिगड़ा है । 'देव - गुरु- पसाय' यह बोला जाता है ।
अनुकूलता के समय अधिक सावधान रहना है । उस समय जीव आसक्ति से अधिक कर्म बांधता है ।
* अज्ञान एवं असंयम के कारण जीव ने आज तक अत्यन्त ही शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध किया है । ज्ञानी क्रिया के द्वारा उन कर्मों का क्षय कर डालता है । अज्ञान में दर्शन मोहनीय एवं असंयम में चारित्र - मोहनीय आ गये ।
* पांच-दस किलोमीटर दूर हो तो भी हम चल कर जिनालय में दर्शन करने जाते हैं तो क्या अपने भीतर ही विद्यमान परमात्म देव के दर्शन करने का प्रयत्न नहीं करे ?
भीतर विद्यमान आत्मा का दर्शन कौन नहीं करने देता ? वह है हमारे भीतर विद्यमान दर्शन मोह (मिथ्यात्व) । ज्ञानी उस मोह को हराने का कहते हैं ।
दर्शन मोह, प्रभु का दर्शन करने नहीं देता । चारित्र मोह प्रभु का मिलाप करने नहीं देता ।
सम्यग्दर्शन
सम्यग्ज्ञान सम्यक्चा
( कहे कलापूर्णसूरि २
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अक्षय पात्र
शान्ति का अक्षयपात्र समृद्धि का अक्षयपात्र
शक्ति का अक्षयपात्र
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