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________________ है या उनके चित्र पर अधिक प्रेम है ? हमें अपने नाम एवं रूप का मोह समाप्त करना हो तो प्रभु के नाम एवं प्रभु की प्रतिमा के आलम्बन के बिना उद्धार नहीं है। * अंग-अग्र-स्तोत्र एवं प्रतिपत्ति (आज्ञा-पालन) यह चार प्रकार की पूजा है । प्रतिपत्ति पूजा सीधी नही आती । इससे पूर्व अंग, अग्र आदि पूजा की भूमिका में से गुजरना पड़ेगा । * ग्रन्थकार नहीं कहते कि मेरे सुवाक्य है । 'त्तिबेमि' कहकर वे सब भगवान पर डालते हैं, सब भगवान का ही है; मैं सुवाक्य देने वाला कौन होता हूं ? 'मिट्टी तो थी ही । उसको मैंने घड़े का आकार दिया । इसमें मेरा क्या ?' यह कुम्हार का कथन है । _ 'अक्षर संसार में थे ही । अक्षरों में से शब्द, पद, वाक्य, श्लोक, प्रकरण आदि होकर ग्रन्थ बना । इसमें मेरा क्या ?' यह ग्रन्थकार का कथन है। ग्रन्थकार भी यह कहते हैं तो हम किस खेत की मूली हैं ? * व्यक्ति के प्रति किया गया राग आग है, जो हमारे आत्मगुणों के बाग को जलाकर खाख करती है । भगवान के प्रति किया गया राग बाग है, जिसमें आत्मगुणों के गुलाब खिल उठते हैं । * 'भगवती' में आजकल पुद्गलों की बात आती है । यह पढ़ने पर ऐसा लगता है कि कैसा यह सर्वज्ञ का अद्भूत दर्शन है ? यह सब पुद्गल की माया है । जीव का इसमें कुछ भी नहीं है । कतिपय पुद्गल स्वाभाविक से, कतिपय प्रयोग से तो कतिपय मिश्रित रूप से निर्मित होते हैं । जीव इस पुद्गल की रचना से पूर्णतः न्यारा है । * ज्ञान के बिना क्रिया अथवा क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है । क्रियाशील ज्ञानी ही इस संसार-सागर को पार कर सकता है । (गाथा ७२) तैरने की क्रिया का ज्ञाता सुयोग्य तैराक भी समुद्र में यदि हाथ-पैर नहीं हिलाये तो डूब मरेगा । महान ज्ञानी भी यदि क्रिया का सर्वथा परित्याग कर दे तो तैर नहीं सकेगा । (८६oommonsoommmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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