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उनके जीवन का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त होता है । हमें देखने को मिलता है कि वे प्रत्येक के साथ किस प्रकार व्यवहार करते हैं । पंचवस्तुक की टीका का नाम है शिष्यहिता । उपयोगहीन वन्दन द्रव्य, कांच का टुकड़ा । उपयोग सहित वन्दन भाव, चिन्तामणि रत्न । द्रव्य-वन्दन मात्र काय - क्लेश गिना जाता है । यदि भाववन्दन एक बार भी हो जाये तो ? 'इक्कोवि नमुक्कारो तारे नरं व नारि वा ।'
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अनुक्रमणिका (पंचवस्तुक की)
१. प्रव्रज्याविधान, २. प्रतिदिन क्रिया (समाचारी), ३. व्रतों में स्थापना, ४. अनुयोग (व्याख्या) की अनुज्ञा, गण की अनुज्ञा, ५. संलेखना देह के साथ कषायों को कृश बनाना । केवल देह को कृश करें तो तप केवल काय - क्लेश बन जाये ।
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✿ वसन्ति एतेषु गुणाः इति वस्तुकम् । जिनमें गुणों का निवास हो वह 'वस्तुक', प्रव्रज्या आदि पांचों में ज्ञान आदि गुणों का निवास हैं अत: वे ‘पंचवस्तुक' हैं । १. पव्वज्जा केण गुरुणा दायव्वा, कस्स (सीसस्स) दायव्वा ? कुत्थ (रिवत्ते) दायव्वा, इत्यादि ।
प्रव्रज्या (दीक्षा) अर्थात् ? प्रकृष्ट व्रजन - गमन वह प्रव्रज्या । पाप से निष्पाप जीवन की ओर प्रयाण वह प्रवज्या है । वास्तव में तो मोक्ष की ओर का वह प्रयाण है । 'प्र' वेग से जाना, आगे ही जाना, पीछे नहीं जाना यह बताने के लिए हैं ।
देशविरति के उत्कृष्ट स्थान की अपेक्षा भी छट्ठे गुणस्थानक के निम्नतम स्थान पर रहे साधु की शुद्धि अनन्त गुनी होती है । 'आयुः घृतम्' घी आयुष्य का कारण है, अतः घी को ही आयुष्य कहा हैं । उस प्रकार चारित्र स्वयं मोक्ष है, क्योंकि वह मोक्ष का कारण हैं। यहां कारण में कार्य का उपचार हुआ है । ✿ मन आदि योगों से कर्म बांधते हैं वे गृहस्थ है और उसके द्वारा जो कर्म तोड़ते हैं, क्षय करते हैं वे मुनि हैं ।
****** कहे कलापूर्णसूरि -