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मेरी मातुश्रीखमा-क्षमाबेन अत्यन्तहीधार्मिक वृत्ति की थीं। जब मैं मुक्तिचन्द्रविजयजी की माता भमीबेन को देखता हूं तो मुझे मेरी मातुश्री याद आती है। आकृति एवं प्रकृति से वे बिल्कुल ऐसी ही थीं। मनफरा में जब प्रथम बार मैंने भमीबेन को | देखे तो मुझे प्रतीत हुआ कि ये क्षमाबेन यहां कहां
से ? वे अत्यन्त भद्रिक एवं सरल प्रकृति की थीं। - एक और सेवा और दूसरी और तत्त्व-जिज्ञासा - दोनों में से क्या पसन्द करना ? पू. कनकसूरिजी महाराज के जाने के बाद प्रेमसूरिजी महाराज का पत्र आया - अब अगले अध्ययन हेतु आ जाओ । देवेन्द्रसूरि महाराज ने कहा, 'मेरा क्या ?'
बस, हम सेवा में रुक गये ।
* अंजार में पू. पं. भद्रंकरविजयजी महाराज का पत्र आया : ध्यान-विचार ग्रन्थ का एक बार अवलोकन कर लें । मैं परेशान हो गया, इन भेद-प्रभेदों के चक्कर में कोन पड़े ? परन्तु पंन्यासजी महाराज पर पूर्ण विश्वास था । थोड़ा परिश्रम किया तो अत्यन्त ही आनन्द आया, ग्रन्थ समझ में आ गया ।
'जिनवर-जिन-आगम एक रूपे' - यह पंक्ति यदि सचमुच हम मानते हों तो ग्रन्थ में परेशानी कैसे ?
मेरे और मेरे वचनों में भेद है ? यदि यह भेद नहीं हो तो भगवान एवं भगवान के वचनों में भेद कैसे हो सकता है ? भगवान के वचन अर्थात् आगम ।
फिर तो ध्यान-विचार में से जो पदार्थ प्राप्त हुए हैं, वे अन्य कहीं से प्राप्त नहीं हुए । मुझे लगा 'यह तो आगम ग्रन्थों का ही एक टुकड़ा है। पक्खिसूत्र में लिखा है - 'झाण विभत्ति', ध्यान विभक्ति, उसका ही यह (ध्यान विचार) एक अंश हो, ऐसा प्रतीत हुआ। उसकी शैली भी आगम जैसी । नय, सप्तभंगी आदि उसीके अनुसार ।
- चौदह पूर्व चौदहपूर्वी को अन्तिम समय में याद नहीं रहते । नवकार ही याद रहता है । उस अपेक्षा से १४ पूर्वो से नवकार का महत्त्व बढ़ जाता है । इसी लिए मैं आगन्तुकों के पास नवकारवाली के नियम का आग्रह रखता हूं ।
(४४ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)