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हम जो कुछ करेंगे उसकी परम्परा चलेगी ।
हमें यदि एकासणा करनेवाले नहीं दिखे होते तो हम यहां एकासणे कहां करते ? चाय पीने की आदत कैसे छोड़ते ?
पू. कनकसूरिजी महाराज की भव्य परम्परा प्राप्त हुई है।
स्वास्थ्य बिगडता तो एकासणा छोड़ने की अपेक्षा वे गोमूत्र लेना पसन्द करते थे । प. कनकसरिजी ने हमें यह सब वाचना से नहीं, जीवन से सिखाया है । बोलते रहने की तो हमारी आदत है।
गुरु की सेवा अर्थात् केवल गोचरी-पानी लाने की ही नहीं, आज्ञा-पालन स्वरूप सेवा चाहिये ।
गोचरी के समय 'वापरुं' अथवा संथारा के समय 'संथारा करूं' ऐसी आज भी हमें आदत हैं ।
इसके प्रभाव से कई बार कटोकटी में मार्ग मिला है, संस्कृत की कठिन पंक्तिओं के अर्थ भी समझ में आ गये है।
पण्डित व्रजलालजी के पास जामनगर में वि.संवत् २०१८ में न्याय का अध्ययन चल रहा था। प्रथम पाठ में ही एक पंक्ति में गाडी रुक गई, परन्तु गुरु-कृपा से उक्त कठिन पंक्ति भी समझ में आ गई ।
१२. 'तत्त्वं जिज्ञासनीयं च ।' गुरु-सेवा करूंगा तो वे मुझे पद प्रदान करेंगे, इस आशा से नहीं, परन्तु निःस्पृह भाव से सेवा करें । सेवा करते-करते तत्त्व-जिज्ञासा गुरु के समक्ष रखें ।
__ आत्मा केवल स्व-संवेदन से जानी जाती हैं अथवा केवली जान सकते हैं। इस प्रकार के आत्म-तत्त्वादि को जानने की अभिलाषा उत्पन्न होना भी बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
- कर्म चक्रव्यूह का भेदन धर्मचक्र के द्वारा ही सम्भव है । ___ अर्जुन के अतिरिक्त कोई चक्रव्यूह का भेदन जानता नहीं था, द्रोणाचार्य को यह पता था । अतः अर्जुन की अनुपस्थिति में चक्रव्यूह की रचना की थी । अब उस चक्रव्यूह को कौन भेदेगा ? अन्त में, अभिमन्यु तैयार हो गया : मैं इसे भेद कर भीतर प्रवेश कर सकता हूं, परन्तु मैं उसमें से बाहर निकलने की कला नहीं जानता ।
अभिमन्यु ने यह कला गर्भ में सीखी थी । इस पर से मैं अनेक बार कहता हूं कि माता बालक को गर्भ में संस्कार प्रदान कर सकती है। माता पर सन्तान का बड़ा आधार है । कहे कलापूर्णसूरि - १ ********
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