________________
अपेक्षा से बड़ा पाप है । प्रशंसा की यह रस्सी ऐसी है कि यदि अन्य व्यक्ति पकड़े तो तर जायेंगे और स्वयं पकड़े तो डूब जायेगा । स्व-प्रशंसा एक ज्वर है जिसके लिए गोली चाहिये । पूर्वाचार्यों की महानता के चिन्तन रूप गोली से यह ज्वर उतर जाता है ।
अन्य की प्रशंसा से हमारे गुण बढते हैं, स्व-प्रशंसा से हमारे गुण घटते हैं और अहंकार बढता है । सद्गुण आते रहे और आये हुए सद्गुण सुरक्षित रहे, उसके लिए हमें सावधान रहना आवश्यक है। सद्गुण रत्न हैं । मोहराजा अभिमान कराकर हमें लुटवाना चाहता हैं । बुद्धि आदि शक्ति हमें भगवान के प्रभाव से प्राप्त हुई है, जिसे भगवान की सेवा में प्रयुक्त करनी है। ‘अच्छा हो वह भगवान का, बुरा हो वह हमारी भूल का,' ऐसा मानें ।
__ आपकी प्रशंसा हो वह मोहराजा को कैसे प्रिय लगेगी ? अतः वह आपको गिराने के लिए मधुर विष देता है - स्व-प्रशंसा का, अभिमान का ।
जब स्व-प्रशंसा की अपेक्षा मिट जायेगी तब आप लोकनिन्दा से विचलित नहीं होओगे । क्षमा, तप आदि गुण भले ही आयें परन्तु क्षमावान, तपस्वी आदि कहलवाना नहीं । गुणों को सार्वजनिक न करें । रत्न कदापि सार्वजनिक रूप में रखे नहीं जाते ।
सद्गुणों की प्राप्ति एवं सुरक्षा केवल भगवान की कृपा से ही सम्भव बनती हैं ।
११. 'सेव्या धर्माचार्याः' - भगवान महावीर के केवल ७०० ही केवली थे । गौतम स्वामी के पचास हजार शिष्य केवली थे, फिर भी गौतम स्वामी ने अभिमान नहीं किया कि मेरे समस्त शिष्य केवली हैं । यह किसका प्रभाव है ? धर्माचार्यों की सेवा का प्रभाव हैं । धर्माचार्यों की सेवा कैसी अद्भुत है ? गुरु छद्मस्थ होते हुए भी शिष्य केवली !
गौतम स्वामी भी कैसे विनयी थे ? गुरु की आज्ञा से वे एक श्रावक (आनन्द) से मिच्छामि दुक्कडं मांगने जाते हैं ।
भगवान की भक्ति के प्रभाव से केवलज्ञान प्रदान करने की लब्धि उनमें प्रकट हुई थी । उनका जीवन बताता है - आप यदि सच्चे अर्थ में शिष्य बनेंगे तो ही सच्चे अर्थ में गुरु बन सकेंगे ।
४२
******************************
कहे