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'कहे कलापूर्णसूरि-३'(गुजराती) पुस्तक का विमोचन,
मडीसा, वि.सं. २०५७
१२-७-१९९९, रविवार
आषा. व. १४
शान्ते मनसि ज्योतिः, प्रकाशते शान्तमात्मनः सहजम् ।
भस्मीभवत्यविद्या, मोहध्वान्तं विलयमेति ॥
जब मन शान्त होता है तब आत्मा का सहज शान्त प्रकाश प्रकट होता है, अविद्या भस्मीभूत हो जाती है और मोह का अन्धकार विलीन हो जाता है ।
- पू. उपा. यशोविजय * उन महापुरुषों के समान हमारी शक्ति नहीं है कि ऐसे नवीन ग्रन्थों का सृजन करें । कम से कम उन बातों को जीवन में आत्मसात् करने का तो प्रयत्न करें ।
जीवनभर की साधना का फल उन्होंने 'आत्मानुभवाधिकार' में बताया है । हम वही फल अल्प समय में प्राप्त करना चाहते हैं । उन्हों ने भी पूर्व के किन्हीं जन्मों मे साधना की होगी तब इस जन्म में कुछ झलक देखने को मिली होगी ।
__१२५, १५०, ३५० गाथाओं के स्तवन, अमृतवेल सज्झाय, १८ पाप स्थानक, आठ दृष्टि की सज्झाय आदि गुजराती में भी उन्होंने अमूल्य खजाना दिया है। प्रत्येक साधु-साध्वीजी को यह
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