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से । अन्य दर्शनी में सम्यक्त्वी ही हों, एसी बात नहीं है, वे विरतिधर भी होते हैं । अंबड परिव्राजक के ७०० शिष्य देशविरतिधर थे। उनके पास ऐसी वैक्रिय लब्धि थी कि ७०० घरों पर एक साथ एक व्यक्ति मिक्षार्थ जा सकता था ।
* साधु-जीवन में एक भी अनुष्ठान ऐसा नहीं हैं, जिसमें कोई अशुभ विचार आ सके । हमारी स्वयं की कमी के कारण अशुभ विचार आ जायें यह अलग बात है । शुभ अनुष्ठानों में भी यदि अपना लक्ष्य शुद्ध एवं शुभ न हो तो आत्म-शुद्धि नहीं हो सकती, मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, हां स्वर्ग आदि के सुख प्राप्त हो सकते हैं।
. 'उवसग्गहरं' में श्री भद्रबाहु स्वामी कहते हैं - 'चिन्तामणि से भी सम्यक्त्व श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा जीव परम-पद तक सरलता से पहुंच सकते है ।'
- जो (स्थानकवासी) नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य आदि नहीं मानते, वे भटक गये हैं । उन्होंने मूर्ति का निषेध ही नहीं, आगमों का भी निषेध किया कहा जायेगा । यह घोर आशातना कहलाती
.. अकेले सूत्र से चल ही नहीं सकता । सूत्र का आशय टीका के बिना समझा ही नहीं जा सकता । कौनसा सूत्र कौनसे नय की अपेक्षा से है ? किसके लिए है ? जिनकल्पी के लिए है या स्थविरकल्पी के लिए है ? यह बात टीका के द्वारा ही जानी जा सकती है ।
अभी अभी समाचार आया है कि बेड़ा (राजस्थान) निवासी जवानमलजी के १८ वर्ष के पुत्र ने अहमदाबाद में स्वयं पर गोली चलाकर आत्महत्या का प्रयत्न किया है और वह जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है । संयम में विराधना करना मतलब आत्महत्या करना । उस लड़के ने तो एक ही बार आत्म-हत्या की । क्या हम नित्य आत्म-हत्या (भाव-प्राणों की) नहीं करते ?
• जब तक शारीरिक शक्ति थी तब तक सप्ताह में एक उपवास हो ही जाता था । भगवान द्वारा बताये हुए ये उपवास हैं । अभ्यंतर तप को शक्तिशाळी बनाने वाला उपवास (२२ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)