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सहन करने आवश्यक हैं । अज्ञानी व्यक्ति हायतोबा के द्वारा भोगते हैं और ज्ञानी उसे आनन्दपूर्वक भोगते हैं। भगवान भी जो परिषह सहते हैं उसमें अवश्य कोई रहस्य होना चाहिये ।
. अनेक व्यक्ति कहते हैं - 'मैं माला नहीं फेरूंगा क्योंकि मेरा मन स्थिर नहीं रहता ।' परन्तु मन स्थिर कब रहेगा ? यदि आप माला फेरेंगे तो कभी न कभी किसी एक नवकार में मन स्थिर बनेगा । फिर धीरे-धीरे आगे बढा जायेगा । यदि सीधे ही मन एकाग्र बन जाता होता तो उपा. श्री यशोविजयजी मन के पांच प्रकार बताते ही नहीं । “एकाग्रता' तो मन का चौथा सोपान है।
एकासणे की आदत कभी न छोड़ें। हमने वर्षों तक एकासणे किये हुए हैं। अट्ठाई के पारणे में भी एकासणा करते । बियासणे तो बहुत समझाइश के बाद आयें हैं ।
एक दीक्षार्थी ने पूज्य कनकसूरिजी को कहा था कि 'बियासणा करने की छूट दे तो मैं आपके पास दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं।'
'मुझे कोई शिष्यों का मोह नहीं है । पूज्य जीतविजयजी की मर्यादानुसार यहां तो एकासणे ही करने पड़ेंगे ।'
इस पर उन्हों ने अन्य समुदाय में दीक्षा अंगीकार की ।
एकासणा की पद्धति से हम अनेक दोषों से बच जाते हैं । स्वाध्याय आदि के लिए पर्याप्त समय प्राप्त होता है । जिस प्रकार भोजन के बिना तन को तृप्ति नहीं होती, उस प्रकार स्वाध्याय के बिना मन को तृप्ति नहीं होती ।
- किसी भी क्रिया के समय आनन्द आये तो समज़ लें कि मन स्थिर हो गया है। उस समय यही समजे कि भगवान मिल गये हैं, क्योंकि प्रभु-मिलन के बिना आनन्द कहीं से भी नहीं आता ।
- मन की स्थिरता का समय बहुत ही अल्प होता हैं । अखबार आदि मन को विक्षिप्त करनेवाले परिबल हैं ।
वि. संवत् २०२२ में भुज में किसी व्यक्तिने मुझे कहा था, 'आप अखबार तो पढते नहीं हैं । उसके बिना आप व्याख्यान में क्या कहेंगे ? प्रवचनकारों को तो खास अखबार पढना चाहिये ।
*** कहे कलापूर्णसूरि - १
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