________________
'कहे कलापूर्णसूरि-३'(गुजराती) पुस्तक का विमोचन,
डीसा, वि.सं. २०५७
१०-७-१९९९, शनिवार
आषा. व. १२
* ज्यों ज्यों परमात्मा के प्रति भक्ति एवं आदर में वृद्धि होती है, त्यों त्यों हमारे भीतर गुण उत्पन्न होते रहते हैं । किसी सामान्य मनुष्य की सेवा करने से भी गुणों की अभिवृद्धि होती है तो परमात्मा की सेवा से क्या नहीं हो सकता ? गुण बहार से नहीं आते । वे तो भीतर ही विद्यमान हैं । केवल हमें उन्हें अनावृत करना हैं ।
• बाह्य प्रदर्शन के लिए ही यदि हमें गुणों की आवश्यकता लगती है तो हमारे और अभव्यों के बीच कोई अन्तर नहीं है ।
गुणों के आविर्भाव का चिन्ह आनन्दानुभूति है। संक्लेश दुर्गुणों का चिन्ह है।' बाह्य पदार्थ सम्पत्ति आदि की प्राप्ति में होने वाला 'आनन्द' आनन्द नहीं है, परन्तु मोहराजा की लुभावनी जाल है, रस-ऋद्धि या सातागारव की यह जाल है। उसमें आसक्त होकर अनेक महात्माओं की अवगति हुई है । शासन-सेवा के बजाय यदि हम उसे स्व-भक्ति में लगा दें तो जान लें कि हम मोहराजा की चाल में फंस गये है ।
. दुःख भावित ज्ञान को परिपक्व करने के लिए परिषह
कह
******************************१७