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- आत्मानुभवाधिकार ( उपाध्यायश्री पूज्य यशोविजयजी कृत अध्यात्मसार)
__ आत्मानुभूति प्रकट करने के लिए तीन वस्तुओं की आवश्यकता है - १. शास्त्र, २. मिथ्यात्व का विध्वंस, ३. कषायों की अल्पता ।
बाह्य अन्धकार को सूर्य नष्ट करता है, आन्तरिक अन्धकार को सद्गुरु नष्ट करते हैं ।
'ज्ञान प्रकाशे रे मोह-तिमिर हरे, जेहने सदरु सूर.' मनकी पांच अवस्थाएं हैं : क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध ।
प्रथम सोपान में मन चंचल ही रहनेवाला है । खटमल एवं बंदर वैसे भी चंचल है ही । आप उन्हें पकड़ने का ज्यों ज्यों प्रयत्न करेंगे, त्यों त्यों वे दूर भागेंगे, परन्तु यह सोच कर साधना से दूर नहीं भागना है। यह स्वाभाविक है - यह समज़कर साधना को दृढतापूर्वक पकड़नी है ।
योगशास्त्र में कही हुई मन की चार अवस्थाओं (विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट एवं सुलीन) का इन पांचों में समावेश हो जाता
क्षिप्त : विषयों का रागी, सुख में सुखी, दुःख में दुःखी राजस मन ।
मूढ : क्रोधादि से युक्त, विरुद्ध कार्यों में मग्न, कृत्य-अकृत्य से अनभिज्ञ तामस मन ।
विक्षिप्त : सत्त्व के आधिक्य से दुःख के कारण शब्दादि को छोड़ कर सुख के कारण शब्दादि में प्रवृत्त मन ।
तीसरी अवस्था में सत्त्वगुण का आधिक्य है । ___ इन तीन दशाओं से जो उपर उठता है, वह एकाग्र अवस्था तक पहुंचता है । वायु-रहित स्थान में दीपक की ज्योति (लौ) स्थिर होती है, उस प्रकार यहां चित्त स्थिर हो जाता है ।
निरुद्ध : संकल्प-विकल्पों का सम्पूर्ण त्याग ।
आत्म-स्वरुप में लीन बने मुनियों का ऐसा मन होता है । प्रथम तीन चित्त आराधना में उपयोगी नहीं हैं ।
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कहे कल