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है । भक्ति में प्रीति है ही । वचन में प्रीति एवं भक्ति दोनों है
और असंग में प्रीति, भक्ति और वचन तीनों हैं । १,००० रूपयों में १००, १०,००० में १,००० और १,००,००० रूपयों में १०,००० समाविष्ट हैं उस प्रकार इन योगों में भी जाने । वास्तव में तो हजार रूपये ही बढते-बढते लाख रूपये बने हैं । उसी प्रकार से प्रीति ही आगे जाकर असंग रूप बनती है।
* हम छद्मस्थ हैं । हमारा प्रेम किसी के प्रति न्यूनाधिक हो सकता है, परन्तु वीतराग परमात्मा के प्रेम की तो समान रूप से सबके उपर वृष्टि हो रही है। ये मेरे, ये तेरे, ये प्रिय, ये अप्रिय' इस प्रकार का भेद भगवान के दरबार में नहीं हैं । जिन्होंने प्रभु को चाहा, उनकी सेवा की, उन्हें माने, उन पर प्रभु की प्रेम-वृष्टि हो रही है। उसमें भगवान ने पक्षपात नहीं किया । कोई व्यक्ति खिड़की, दरवाजा खोलकर सूर्य का प्रकाश अधिक प्राप्त कर ले या कोई खिड़की, दरवाजा बंद करके अंधेरे में टकराते रहे, उसमें सूर्य का दोष नहीं है। सूर्य तो प्रकाश बिखेर ही रहा है। प्रकाश में जीना या अन्धकार में ? यह तो आपको स्वयं को निश्चित करना है। भगवान सर्वत्र कृपा-वृष्टि कर रहे हैं । कितना प्राप्त करना - यह आपको निश्चित करना है, केवल आपको ही ।।
* तीर्थ के उच्छेद के आलम्बन से भी अयोग्य को सूत्र प्रदान करने का योगाचार्य निषेध करते हैं ।
अभी ही शशिकान्तभाई को पूछा - क्यों आजकल परदेश जाना बंद कर दिया है ?
उन्होंने उत्तर दिया - कोई लाभ नहीं । उन लोगों में धर्म या ध्यान की बातें समझने की स्वाभाविक पात्रता ही नहीं है। वहां जाकर केवल गला सुखाना है । इसकी अपेक्षा मौन रह कर साधना करना श्रेष्ठ है ।
सच बात है। कच्चे घड़े में जल नहीं भरा जा सकता । सड़ी हुई कुत्ती को कस्तूरी नहीं लगाई जाती । अयोग्य को सूत्र नहीं दिये जा सकते ।
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