________________
९९ दिन के बाद पू. बा महाराज भी चल बसे
भस्व, वै.सु. १३, वि.सं. २०५८
२४-११-१९९९, बुधवार
माग. व. १ + २
साधना यदि विधिपूर्वक एवं आदरपूर्वक निरन्तर की जाये तो अवश्य सफल होती है । बीच में अन्तर नहीं पड़ना चाहिये ।
व्यापारियों को पूछे कि महिने में पन्द्रह दिन दुकान बन्ध रहे तो क्या होगा ? उतने ग्राहक जोड़ने में कितना समय लगेगा ? नर्मदा नदी का पुल यदि अखण्ड न हो, बीच में एक फुट का खड्डा हो तो चलनेवालों की क्या दशा होगी ? हमारी साधना का पुल भी अखण्ड होना चाहिये ।।
आत्म-साधना के बिना सर्वत्र हम सातत्य रखते हैं । नियमित साधना नहीं होने से, आदरपूर्वक नहीं होने से, विधिपूर्वक नहीं होने से ही हमारा अभी तक मोक्ष नहीं हुआ ।
. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आदि ज्यों ज्यों मन्द होते जाते है, त्यों त्यों साधना की गति में वृद्धि होती रहती है और साधना का आनन्द बढता जाता है ।। __मिथ्यात्व नष्ट होने पर चौथा गुण स्थानक आता है, सम्यक्त्व का आनन्द प्राप्त होता है ।
__ अविरति जाने पर छट्ठा गुणस्थानक मिलता है, सर्वविरति का (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ५८३)