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आनन्द प्राप्त होता है ।
प्रमाद जाने पर सातवां अप्रमत्त गुणस्थानक मिलता है, वीर्योल्लास का आनन्द प्राप्त होता है ।
कषाय नष्ट होने पर वीतरागता (बारहवां गुणस्थानक) प्राप्त होती
वीतरागता प्राप्त होने पर सर्वज्ञता (तेरहवां गुणस्थानक) प्राप्त होती है।
योग जाने पर अयोगी गुणस्थानक मिलता है और अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है।
* श्रद्धा का अभाव हो तो सम्यग् दर्शन प्राप्त नहीं होता । जिज्ञासा का अभाव हो तो सम्यग् ज्ञान नहीं मिलता । स्थिरता का अभाव हो तो सम्यक् चारित्र नहीं मिलता । अनासक्ति का अभाव हो तो सम्यक् तप नहीं मिलता । उल्लास का अभाव हो तो वीर्य की प्राप्ति नहीं होती ।
यदि वीर्याचार नहीं हो तो एक भी आचार का पालन नहीं हो पायेगा । वीर्य सर्वत्र अनुस्यूत है । इसी लिए दूसरे चार आचारों के भेद ही वीर्य के भेद माने गये हैं ।
'जिहां एक सिद्धात्मा तिहां छे अनंता, अवन्ना अगंधा नहीं फासमंता;
आत्मगुण पूर्णतावंत संता, निराबाध अत्यन्त सुखास्वादवंता' ॥ ३९ ॥
हम एक कमरे में सीमित संख्या में ही रह सकते हैं, परन्तु सिद्ध जहां एक हैं वहां अनन्त है, क्योंकि वे अरूपी है, वर्णगंध-रस-स्पर्श आदि से रहित हैं ।
नाम कर्म ने हमें इतने ढक दिये हैं कि वर्ण आदि से परे अवस्था की कल्पना ही नहीं आती ।
__ मनुष्य की आसक्ति देह से आगे बढकर वस्त्र, आभूषण एवं मकान तक पहुंच गई है। वह इनकी सुन्दरता में अपनी सुन्दरता मानता है। अनामी, अरूपी आत्मा का देह के साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं है तो वस्त्र या मकान की तो बात ही क्या करनी ?
समस्त इन्द्रियां स्व-इष्ट पदार्थ प्राप्त होने पर प्रसन्न होती हैं ।
५८४ ****************************** कह