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योगी निर्विकल्पी होते है तब शुद्ध आनन्द के सुख का अनुभव करते है । पहले ज्ञान आदि अलग-अलग थे, वे एक-दूसरे के सहायक बनते थे, अब एक हो जाते हैं ।
दर्शन ज्ञान चरण गुण सम्यग् एक-एक हेतु, स्व स्व हेतु थया समकाले तेह अभेदता खेतु; पूर्ण स्वजाति समाधि घनघाती दल छिन्न, क्षायिकभावे प्रगटे आतम-धर्म विभिन्न. ॥ ३६ ॥
अब तक दर्शन आदि एक-एक के हेतु थे । अब सब एक साथ अभेद के हेतु बनते हैं ।
पछी योग संधी थयो ते अयोगी, भाव शैलेशता अचल अभंगी; पंच लघु अक्षरे कार्यकारी, भवोपग्राही कर्म संतति विदारी. ॥ ३७ ॥
योग का रोध करके अयोगी गुणस्थानक में मेरु जैसी अडोल स्थिति प्राप्त कर के पांच हुस्वाक्षर काल में आत्मा वह पूर्ण करके सिद्धशिला पर जा बैठता है ।
समश्रेणे समये पहोता जे लोकान्त, अफुसमाण गति निर्मलचेतन भाव महांत; चरम विभाग विहीन प्रमाणे जसु अवगाह, आत्मप्रदेश अरूप अखंडानंद अबाह. ॥ ३८ ॥
इन समस्त गाथाओं का अर्थ सर्वथा सरल है, कहने की भी आवश्यकता नहीं है, परन्तु उन्हें जीवन में उतारना अत्यन्त ही कठिन है । जीवन में उतारने के लिए कितने ही जन्म चाहिये । यह प्राप्त करने के लिए ही यह सब प्रयत्न है।
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कहे