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ऐसा जाननेवाले समभाव में लीन मुनिको स्वर्ग या नरक, स्वर्ण या मिट्टी, वन्दक या निन्दक, मान या सन्मान सब पर समान भाव होता है । __ 'तेह समतारसी तत्त्व साधे, निश्चलानंद अनुभव आराधे; तीव्र घनघाती निज कर्म तोड़े, संधि पडिलेहिने ते विछोड़े' ॥२७॥
श्रेणि अर्थात् उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम । समुद्र में उठता ज्वार देख लो । उस समय नये कर्मों का बंध नहीं होता, परन्तु ध्यान की कुल्हाड़ी से तीव्र घनघाती कर्मों के लकड़े तड़-तड़ टूटने लगते हैं।
गांठवाले लकड़ों को तोड़ने में अत्यन्त कठिनाई होती है । लकड़े की तरह कर्मों में भी गांठें होती हैं । ऐसे गांठवाले कर्मों को तोड़ना कठिन होता है । (सन्धि अर्थात् गांठ)
पर-पदार्थों के प्रति राग की गांठ, जीवों के प्रति वैर की गांठ ।
ऐसी अनेक गांठों के कारण कर्म भी गांठवाले लकड़े के समान मजबूत होते हैं ।
. इस काल में सीधा आत्मा का आलम्बन नहीं लिया जा सकता, प्रभु का आलम्बन ही प्रथम आवश्यक है। जिस प्रकार उपर जाने के लिए सीढी चाहिये, उस प्रकार आत्मा के पास जाने के लिए प्रभु चाहिये ।
सीढी के बिना ठोकरें खानेवाले की हड्डियां टूटती हैं । प्रभु के बिना साधना करनेवालों के मार्ग भ्रष्ट होने की अधिक सम्भावना है।
आत्म-साधक अल्प होय लोकोत्तरमार्गनी साधना करनार पण मोक्षनी ज अभिलाषावाळा अल्पसंख्यामां होय छे. तो पछी लौकिकमार्ग के ज्यां भौतिक सुखनी अभिलाषानी मुख्यता छे, त्यां मोक्षार्थी अल्प ज होयने? जेम मोय बजारोमा रत्ना व्यापारी अल्प संख्यामां होय तेम आत्मसाधकनी संख्या पण अल्प होय छे
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