________________
बनता है । तथाभव्यत्व की परिपक्वता से ग्रंथिभेद होने पर शुभ आज्ञायोग आता है ।
. तथाभव्यत्व परिपक्व नहीं हुआ, ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ, ऐसा मत कहो, इसके लिए कोई प्रयत्न (दुष्कृतगर्दा, सुकृत अनुमोदन, शरणागतिरूप) नहीं किये, ऐसा कहो ।
. प्रस्तावना या अनुक्रमणिका में जिस प्रकार ग्रन्थ का परिचय आता है, उस प्रकार नवकार में सम्पूर्ण जिनशासन का परिचय हैं । नवकार अर्थात् जिनशासन की प्रस्तावना अथवा अनुक्रमणिका । ऐसा समझने के बाद जो भी शास्त्र आप पढोगे उसमें नवकार ही दिखेगा ।
अध्यात्म गीता :
आत्मलीनता भले थोड़े समय की हो, परन्तु इतनी झलक से मुनि का सम्पूर्ण जीवन बदल जाता है । व्यवहार में भी उस झलक की छाया दिखती है ।
फिर समस्त अवगुण भाग जाते हैं - 'भगवान हृदय में प्रविष्ट हो गये हैं । वे हमें निकाल दें उससे पूर्व ही हम बिस्तर-गठरी बांधकर चल पडें ।' ऐसा सोचकर दोष भागने लग जायें ।
'पुन्यपाप बे पुद्गल - दल भासे परभाव, ___परभावे परसंगत पामे दुष्ट विभाव;
ते माटे निजभोगी योगीसर सुप्रसन्न, देव नरक तृण मणि सम भासे जेहने मन्न' ॥ २६ ॥
पुन्य-पाप के प्रति भी उस योगी को समभाव होता है। स्वर्ण हो या मिट्टी, दोनों पुद्गल हैं, उस प्रकार पुन्य-पाप भी पुद्गल हैं।
__ पुन्य से प्राप्त सुखों में आसक्ति से आत्मा दुष्ट विभाव दशा को प्राप्त होगी, ऐसा योगी जानते होते हैं ।
अनिष्ट के प्रति घृणा नहीं, इष्ट के प्रति खुशी नहीं, मुनि का यह मध्य मार्ग हैं ।।
जहां आप साता के अभिलाषी बनते हैं, तत्क्षण कर्म आपको चिपकते हैं । जिस क्षण आप कहीं घृणा करते हैं, उसी क्षण कर्म आपको लिपटते हैं। (कहे कलापूर्णसूरि - १
-१
******************************५६७