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१. नये कर्म रोकती है - संवर ।। २. अशुभ कर्मों का क्षय करती है - निर्जरा । ३. शुभ कर्मों का बंध होता है - पुन्य । इन तीनों का फल परम पद मोक्ष प्राप्ति है ।
* धर्म केवल क्रियापरक नहीं, किंतु भावपरक है । गुणस्थानकों की गणना भाव से होती है, क्रिया से नहीं । व्यापार में लाभ मुख्य होता है, उस प्रकार धर्म में भाव मुख्य होता है । व्यापार में समस्त पदार्थों में भाव (मूल्य) मुख्य है, एक कि.ग्रा. लोहा पन्द्रह रूपये में मिलता है और एक तोला स्वर्ण पांच हजार में मिलता है।
कौनसी वस्तु आप कितने में बेचते है, उसका व्यापार में मूल्य है । भाव के घटने-बढने पर लाभ-हानि आधारित है ।
यहां धर्म में भी भाव मुख्य है ।
सब में जीवत्व समान होते हुए भी भव्य, अभव्य, दुर्भव्य आदि भेद भाव के कारण होते हैं ।
धर्म भावनाशील व्यक्ति को ही लागू होता है ।
वर्षा होती है, परन्तु लाभ कौन सी धरती को पहुंचता है ? उस धरती को लाभ होता है जिसमें बीज बोये हुए होते हैं । यहां भी भाव, बीज के स्थान पर हैं ।
भाव एवं अध्यात्म दोनों एक ही हैं । दान आदि तीनों को भावयुक्त करना ही अध्यात्म है ।
'नाम अध्यातम ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडो रे; भाव अध्यातम निज गुण साधे, तो तेहशं रढ मंडो रे.' ।
भाव उत्पन्न करनेवाले हों तो नाम आदि एवं दान आदि भी उपादेय हैं, यह भी न भूलें ।।
भाव कैसा होना चाहिए ? १. समस्त जीवों के प्रति मैत्री युक्त २. गुणी जीवों की ओर प्रमोद युक्त ३. दुःखी जीवों के प्रति करुणा युक्त ४. निर्गुणी जीवों के प्रति माध्यस्थ युक्त होता है ।
फिर शुभ आज्ञायोग आता है, जो परम-पद का अवंध्य कारण ५६६ ****************************** कहे
कहे कलापूर्णसूरि -१)