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पूज्यश्री की एक लाक्षणिक अदा,
वि.सं. २०५७
२०-११-१९९९, शनिवार
का. सु. १२
. भगवान के उपदेश का फल है : आत्मानुभव । यह फल प्राप्त करके ही महापुरुषों ने लोगों के लिए मार्गदर्शक ग्रन्थों की रचना की है, अहं के पोषण के लिए नहीं ।
. शुद्ध आज्ञायोग अध्यात्म का अवंध्य कारण है।
शुद्ध आज्ञायोग आने पर अध्यात्म आये बिना रहेगा ही नहीं । वह चरमावर्त काल में ही प्राप्त हो सकता है।
चरमावर्त भी बहुत लम्बा है । अनन्त भव हो जायें, अनन्त उत्सपिणी- अवसर्पिणी निकल जायें । अतः उनमें भी जब ग्रन्थि का भेद होता है, तब ही अध्यात्म आता है ।
अध्यात्म नहीं आये तब तक कर्मों का भरोसा नहीं किया जा सकता । लोग चाहे कहने लगें - 'ओह ! महाराज अत्यन्त सद्गुणी', परन्तु इससे आप भ्रम में मत पड़ना । भगवान की दृष्टि में हम सदुणी बनें तब ही वास्तविक अर्थ में सद्गुणी बने समझें ।
कर्मों का थोड़ा शमन होने पर गुण दिखने लगते हैं, परन्तु वे कब चले जायें, कोई भरोसा नहीं ।
भगवान की आज्ञा अर्थात् गुरु की आज्ञा । कहे कलापूर्णसूरि - १ *********
कह
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