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दर्पण आपका मुंह रोता हुआ बताता है। आप यहि हंसते हों तो दर्पण आपको हंसता हुआ बताता है । भगवान की प्रतिमा एवं आगम भी कोई पक्षपात नहीं करते । जो है वही बताते है ।
* भगवान की पूजा वस्तुतः आत्मा की ही पूजा है ।
गुरु या भगवान खुद का विनय नहीं कराते खुद की पूजा नहीं कराते, परन्तु साधक का यही मार्ग है । वह पूजा-विनय करता जाये त्यों उसका साधना का मार्ग स्पष्ट बनता जाता है । उसे स्वयं को भी लाभ होता जाता है ।।
इसीलिए 'जेह ध्यान अरिहंत को सो ही आतम ध्यान' कहा गया है। इसीलिए प्रभु के गुणों में तन्मयता वस्तुतः आत्मा में ही तन्मयता है, ऐसा कहा गया है ।
जिसे आत्म-रमणतारूप अमृत मिल गया, उसे पर-भाव का विचार हलाहल विष लगता है ।
स्वभाव दशा अमृत है । विभाव दशा विष है । विष छोड़ कर अमृत-पान करें, इतनी ही शिक्षा है । 'यस्य ज्ञानसुधा - सिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तर-सञ्चारस्तस्य हालाहलोपमः ॥'
ज्ञान अमृत का समुद्र है । वह पर ब्रह्मरूप है । जो उसमें डूब गया उसे अन्य विषय हलाहल विष तुल्य लगते हैं ।
बिचारी बुद्धि ! हुं चैतन्य स्वरूप छु तेनुं अनुभव-प्रमाण बुद्धि पौद्गलिक होवाथी केवी रीते करी शके ? हुं चैतन्य स्वरूप छु. मने जन्म, मरण, रोग, शोक नथी तेवं बुद्धिमां उतरतुं नथी अने आत्मज्ञानमा विश्वास नथी. तेथी मनुष्यना दुःखो पण टळता नथी.
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****** कहे कलापूर्णसूरि - १)
कहे