________________
तब तक पुद्गल आत्म-घर में से निकलने का नाम नहीं लेंगे । चिपकु मेहमानों को आप नित्य मिष्टान देते रहो, फिर वे क्यों जायेंगे ?
__ अप्रमत्त मुनि इन चिपकु अतिथियों को पहचान गये हैं । वे उनको सम्मान देना बन्ध करते हैं ।
* स्वद्रव्य आदि चार से अस्तित्व परद्रव्य आदि चार से नास्तित्व आत्मा में रहा हुआ है ।
मोहराजा की सारी सेना आत्मा में नास्तित्व के रूप में ही है, अस्तित्व के रूप में नहीं । इस बात का हमें ध्यान नहीं होने से ही हम दुःखी हैं ।
__ आत्मा तो निर्मल स्फटिक तुल्य है । इसमें कहीं भी अशुद्धि का अंश नहीं है ।
जीवन से उब जायें, निराशा हमें चारों ओर से घेर ले, तब शुद्ध स्वरूप का विचार हमारे भीतर से कायरता को भगा देता है।
दुर्गादास अत्यन्त ही जिज्ञासु श्रावक था । उसके निवेदन पर ही अध्यात्मगीता की रचना हुई है। उस समय लाडूबेन नाम की श्राविका अत्यन्त ही जिज्ञासु थी जो उसके तत्त्वपूर्ण पत्र से ज्ञात होता है ।
उक्त पत्र एक पुस्तक में छपा हुआ है ।। 'स्वगुण चिंतनरसे बुद्धि घाले, आत्मसत्ता भणी जे निहाले; शुद्ध स्याद्वाद पद जे संभाले, पर घरे तेह मुनि केम वाले ?' ॥२५॥
. आज चाहे पिता की रकम है, परन्तु कल वह पुत्र की ही होगी । उस प्रकार भगवान का ऐश्चर्य अन्ततोगत्वा भक्त का ही है ।
. भगवान की प्रतिमा और भगवान के आगम हमारे लिए दर्पण हैं, जिनमें निरीक्षण करने पर तुरन्त ही अपने दोष दिखने लगते हैं।
जब हम क्रोध के आवेश में हों और भगवान की शान्त प्रतिमा देखें, तब हम कैसे दिखते हैं ? कहां शान्तरसमय प्रभु और कहां क्रोध से तमतमाता मैं ?
भगवान के आगम पढते समय भी हमारे अपार दोष स्पष्ट दिखते हैं।
दर्पण कुछ भी पक्षपात नहीं करता । आप यदि रोते हों तो
कहे
-१ ******************************५६३