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अपने दो पुत्र- शिष्यों के साथ, वि.सं. २०५२
१८-११-१९९९, गुरुवार का. सु. १०
अध्यात्म गीता
'व्यवहार से जीव चाहे बंधा हुआ है, परन्तु निश्चय से वह अलिप्त है, क्योंकि सभी द्रव्य परस्पर अप्रवेशी हैं । अनादि काल से जीव एवं पुद्गल साथ रहते हैं, फिर भी जीव पुद्गल नहीं बनता और पुद्गल जीव नहीं बनता ।' एैसी बातें जानता होने से अलिप्त साधक, मोह को पराजित करता है । मोह को जीतने के ये तीक्ष्ण शस्त्र है ।
'ज्ञानसार' व्यवहार एवं निश्चय दोनों के सन्तुलन से युक्त अद्भुत ग्रन्थ है | साधकों के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है । इसीलिए पू. देवचन्द्रजी ने यशोविजयजी को भगवान कहकर उस पर 'ज्ञान मंजरी' टीका लिखी है । 'ज्ञानसार' सर्वमान्य ग्रन्थ है ।
✿ जो पुद्गल स्व से भिन्न है, उसके प्रति प्रेम क्या ? उसके प्रति आसक्ति क्या ? यह बात अप्रमत्त मुनि जानते है; जबकि हमें पुद्गलों के प्रति प्रगाढ आसक्ति है, पुद्गल हमें अपने लगते हैं । जब तक हमारी ओर से सम्मान एवं सत्कार प्राप्त होते रहेंगे, ******* कहे कलापूर्णसूरि - १
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