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है। नित्य पुण्य के भण्डार भरते है । नमस्कार-भाव, पुण्य का परम कारण है।
हमारे विनय को देखकर अन्य व्यक्ति विनय सीखते है । अन्य व्यक्ति भी गुरु-कुल-वास स्वीकारें, चारित्र में भी स्थिरता रहे । वृद्धों के पास रहने से संयम सुरक्षित रहता है । यह भी गुरुकुल-वास का महान् लाभ है ।
यह दीक्षा, ज्ञान आदि की साधना के लिए ली है जो गुरुसेवा से ही सम्भव है ।
विशुद्ध संयम से योग्य शिष्य प्राप्त होते हैं और वे भी गुरु की तरह निर्मल आराधना करते हैं । इससे जन्मान्तर में भी शुद्ध मार्ग की प्राप्ति होती है । इस जन्म में प्राप्त शुद्ध मार्ग सूचित करता है कि पूर्व जन्म में हमने संयम की विशुद्ध साधना की है ।
शुद्धि एवं अशुद्धि के संस्कार जन्मान्तरों तक चलते हैं । हम चिलातीपुत्र आदि के उदाहरण जानते हैं ।
गुरुकुल-वास मोक्ष का मुख्य कारण है, क्योंकि मोक्ष मार्गरूप रत्नत्रयी गुरुकुलवास से ही प्राप्त होती है ।
भगवान महावीर के ७०० साधु, १४०० साध्वी, गौतम स्वामी के ५०००० (पचास हजार) शिष्य मोक्ष में गये हैं जो इस विशुद्ध संयम के बल से गये हैं। उस संयम की विशुद्धि की उपेक्षा कैसे की जाये ?
अध्यात्म गीता ज्ञान आदि को उज्ज्वल बनाने के लिए अध्यात्म योग चाहिये । मन आदि तीन का शुभ व्यापार ही अध्यात्म योग है।
. जितने अंशों में आत्मा की रुचि होगी, उतने ही अंशों में उसकी जानकारी होगी । जितने अंशों में जानकारी होगी, उतने ही अंशों में आप उसकी रमणता कर सकते है । इस प्रकार रुचि, ज्ञप्ति एवं रमणता उत्तरोत्तर निर्भर है ।।
पुद्गल द्रव्यों की रुचि, ज्ञप्ति एवं रमणता का अनुभव हमें हैं, परन्तु आत्मा का थोड़ा भी अनुभव नहीं है । आत्मा स्वयं ही स्वयं से ही अनजान है । सब को देखनेवाली आंखें स्वयं को ही देख नहीं सकती ।।
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