________________
* चारित्र का पालन करने से आत्मानुभूति प्रकट होती ही है । यदि प्रकट नहीं हो तो चारित्र के पालन में कहीं त्रुटि समझें ।
- मिथ्यात्व एवं चारित्र मोहनीय कर्म की निर्जरा होती है तब आत्मानन्द प्रकट होता ही है। कर्म-निर्जरा को जानने की यही एकमात्र कसौटी है। यह आनन्द समता का, प्रशम का होता है।
. मोहराजा का भय तब तक ही लगता है, जब तक हम आत्मशक्ति एवं प्रभु-भक्ति का बल नहीं जानते । बकरों के टोले (समूह) में रहनेवाले सिंह को जब निज-सिंहत्व का ज्ञान हो जाता है, फिर वह क्यों डरेगा ?
'तप-जप मोह महा तोफाने, नाव न चाले माने रे; पण मुज नवि भय हाथो हाथे, तारे ते छे साथे रे.' यशोविजयजी के ये उद्गार देखें । 'आतम सर्व समान, निधान महासुखकंद, सिद्धतणा साधर्मिक सत्ताए गुण वृंद; जेह स्वजाति बंधु तेहथी कोण करे वध बंध, प्रगट्यो भाव अहिंसक जाणे शुद्ध प्रबंध.' ॥ २२ ॥
आज तक जीवों के प्रति द्वेष था, वह अब मैत्री में बदल जाता है । जो हमारा माने नहीं, अपमान करे, वैसे जीवों के प्रति भी प्रेम प्रवाहित होता है ।
अपुनर्बंधक (मार्गानुसारी) में मित्रा आदि चार दृष्टि आ गई । अन्य दार्शनिकों में भी ऐसे साधक मिलते हैं, जो सबके प्रति प्रेम की वृष्टि करते हों, प्रभु को जपते हों चाहे वे अल्लाह, ईश्वर, राम, रहीम, कृष्ण या अन्य किसी नाम से ईश्वर को पुकारते हों ।
देखिये 'अल्लाह' एवं 'अहम्' में कितनी समानता है ? दोनों में पहले 'अ' और अन्त में 'ह' है; बीच में 'र' का 'ल' हो गया है । इतना ही अन्तर है ।
ऐसा साधक सब को कैसे देखता है ? 'आत्मवत् सर्वभूतेषु ।' समस्त जीवों को अपने समान देखता है । 'मातृवत् परदारेषु ।'
परस्त्रियों में माता का रूप देखते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
-१****************************** ५५५