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बड़े भाई की तरह मैं मूर्ख रहा होता तो ठीक था । उन्हें मूर्ख के आठ गुण याद आये :
मूर्खत्वं, हि सखे ममापि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणा । निश्चिन्तो बहुभोजनोऽत्रपमना नक्तंदिनं शायकः । कार्याऽकार्यविचारणान्धबधिरो मानाऽपमाने समः । प्रायेणाऽऽमयवर्जितो दृढवपुः मूर्खः सुखं जीवति ॥
निश्चिन्तता, अधिक भोजन खा सकने की शक्ति, निर्लज्जता, रात-दिन सोये रहना, कार्य या अकार्य की विचारणा ही नहीं करनी, मान या अपमान में समभाव, रोग-रहितता, सुदृढ शरीर - ये मूर्ख के आठ गुण हैं । अतः हे मित्र ! मुझे भी मूर्खता प्रिय है ।
बस, अब उन्हें पढाना बन्ध किया, जिसके कारण इस भव में यह राजकुमार वरदत्त मूक (गूंगा) बना है ।
झूठे मुंह बोलना, जेब में छपे हुए कागज आदि रखकर दीर्घशंकालघुशंका हेतु जाना, अक्षरवाले वस्त्र पहनने, समाचारपत्रों आदि पर बैठना, चित्रों पर पांव रखना आदि ज्ञान की आशातनाएं हैं ।
श्रुतज्ञान की विराधना करेंगे तो बहरे-गूंगे बनना पड़ेगा, आराधना करेंगे तो श्रुतज्ञान केवलज्ञान तक पहुंचा देगा ।
'कहे' अने ‘कां' ना जाजरमान प्रकाशनो जैन संघने भेट आपी महान उपकार कर्यो छे. अमने पूज्यश्रीनी वाणीनो साक्षात् संयोग करावी आप्यो.
- मुनि देवरत्नसागर
मुंबई.
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५४८
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* कहे कलापूर्णसूरि - १)
कहे