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पद्मपुरनगर में चतुर्ज्ञानी अजितसेन आचार्य ने देशना में ज्ञानप्रधान देशना दी कि 'समस्त क्रिया का मूल श्रद्धा है, भक्ति है । श्रद्धा का मूल भी ज्ञान है ।'
देशना सुनकर वरदत्त के पिता राजा ने वरदत्त के गूंगेपन के विषय में तथा गुणमंजरी के पिता ने गुणमंजरी के गूंगेपन के विषय में प्रश्न पूछे । आचार्यदेव ने दोनों के पूर्वभव बताये । उन्होंने ज्ञानावरणीय कर्म किस प्रकार बांधा यह समझाया ।।
सच्ची माता पढाने के लिए ध्यान रखती है ।
गुणमंजरी के जीव ने सुन्दरी के भव में शिक्षक की अवहेलना की थी । उसने पुत्रों का अध्ययन बन्ध करा दिया । पुस्तक आदि जला दिया । इससे भयंकर ज्ञानावरणीय कर्म-बन्धन किया ।
__ पुत्र बड़े होने पर उन्हें कोई अपनी कन्या विवाह में देने के लिए तैयार न होने पर रुष्ट पति ने पत्नी सुन्दरी को लताड़ दी । सुन्दरी भी शान्त रहनेवाली नहीं थी । वह गर्ज उठी, 'पुत्री माता की और पुत्र पिता के माने जाते हैं । पुत्रों का उत्तरदायित्व तुम्हारा गिना जाता है । मुझे क्यों धमकाते हो? तुम भी मूर्ख हो और तुम्हारे पिता भी मूर्ख है । तुम मूर्ख हो तो पुत्र कैसे विद्वान बनें ? आखिर सन्तान तो तुम्हारे ही है न ?'
आदि आदि बाते सुनकर क्रोधित पति ने उस पर स्लेट फेंकी । स्लेट सिर में जोर से लगने के कारण वह मर गई । __ वही सुन्दरी आज गुणसुन्दरी बनी है।
श्रीपुरनगर - वासुदेव सेठ - दो पुत्र - वासुसार एवं वासुदत्त । मुनिसुन्दरसूरि के परिचय से दोनों ने दीक्षा ग्रहण की ।
छोटा भाई होशियार था । विद्याध्ययन करके आचार्य बने । वाचना आदि में कुशल बने । बड़े भाई में विशेष बुद्धि नहीं थी । परन्तु बड़े आचार्य भी कैसे भूलते हैं ? यह देखने योग्य है । अतः बड़े साधक को भी प्रतिक्षण सावधानी रखनी आवश्यक है।
__ एकबार आचार्य शयन कर चुके थे । उस समय एक शिष्य कुछ पूछने के लिए आया । उसे देखकर अन्य शिष्य भी पूछने आ गये । आचार्यश्री की नींद खराब हो गई । नींद बिगड़ने से उनका मन बिगड़ गया । वे विचार में पड़ गये - 'इसकी अपेक्षा (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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