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भीलडीयाजी (गुजरात) तीथें सामूहिक जाप,
वि.सं. २०४४, फाल्गुन
१०-११-१९९९, बुधवार
का. सु. २
- संसार में भटकती-परिभ्रमण करती हमारी आत्मा को अनन्त पुद्गल परावर्त व्यतीत हो गये, परन्तु अभी तक भव-भ्रमण का अन्त नहीं आया । महा पुन्योदय से ही जिनवचनों को श्रवण करने का सुअवसर मिलता है। श्रवण करने का लाभ सद्गुरु-संयोग से ही मिलता है । सद्गुरु-संयोग दुर्लभ है । सद्गुरु का सम्पर्क योगावंचकता से होता है ।
१. योगावंचक । २. क्रियावंचक । ३. फलावंचक ।
इन तीनों में भी योगावंचकता ही दुर्लभ है । गुरु में तारकता के दर्शन करना योगावंचकता है ।
समवसरण में अनेक बार जा आये, देशना श्रवण कर आये, परन्तु तारक-भाव उत्पन्न नहीं हुआ, अतः सब व्यर्थ गया ।
इस समय भगवान नहीं है, भगवान का शासन है । उसमें तारक-बुद्धि उत्पन्न हो जाये तो काम हो जाये । आत्मज्ञान की सच्ची भूख लगी हो तो आज भी तृप्ति हो सकती है। भोजनशाला का ५३२ ******************************
**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
कहे