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आयेगा ? ये ज्ञानादि गुण ही । तो फिर इन गुणों को संस्कार का पुट क्यों न दें ?
वज्रस्वामी को तीन वर्ष की उम्र में ग्यारह अंग कैसे याद रह गये ? इतनी बुद्धि उन्हें कहां से मिली ? तिर्यग्जूभक के पूर्व जन्म में नित्य पुण्डरीक-कण्डरीक अध्ययन का पांचसौ बार पुनरावर्तन करते थे, जो अष्टापद तीर्थ पर गौतमस्वामी के मुंह से सुना था ।
अध्यात्म गीता : एम उपयोग वीर्यादि लब्धि, परभाव रंगी करे कर्मवृद्धि परदयादिक यदा सुह विकल्पे, तदा पुण्यकर्मतणो बंध कल्पे ॥१५॥
पौद्गलिक लाभ (धन आदि) मिलने पर जीव गौरव एवं आनन्द का अनुभव करता है कि मैं सुखी हुआ; परन्तु वास्तव में तो यह दुःख का मूल है, यह बात जीव समझता नहीं है ।
जीव की मुख्य दो शक्तियां हैं : १. उपयोग शक्ति - ज्ञान । २. वीर्य शक्ति - क्रिया ।
इन दोनों शक्तियों को हमने परभाव संगी बना दी है। उसके द्वारा कर्मों की ही वृद्धि की है ।
पुन्य-कर्म स्वर्ग में पहुंचाते हैं, परन्तु मोक्ष में जाना हो तो आत्मशुद्धिजन्य गुण चाहिये । उसके लिए सद्गुरु-योग चाहिये ।
हिंसा दो प्रकार की हैं : १. द्रव्य : जीव हिंसा, २. भाव : गुण हिंसा ।
जब आवेश में आते हैं तब हम भूल जाते हैं कि हम भावप्राण की हिंसा कर रहे हैं ।
द्रव्य-हिंसा से भी यह भाव-हिंसा खतरनाक है ।
दसरे को 'क्रोधित करते हैं यह भी हिंसा है। अन्य को मारने से हिंसा होती है उस प्रकार अन्य को क्रोधित करना भी उसकी हिंसा है । यह प्रथम हिंसा से खतरनाक है ।
दोष मिटें और गुण बढें, यही नूतन वर्ष की शुभेच्छा है ।
परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, क्लेश से दूर रहें, एक दूसरे को सहायक बनें, वैयावच्च करते रहें, तो जीवन धन्य बनेगा ।
कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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